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कजली / 17 / प्रेमघन

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नागरी भाषा

अर्थात् खरी हिन्दी, अथवा खड़ी बोली

सजकर है सावन आया, अतिही मेरे मन को भाया।
हरियाली ने छिति को छाया, सर जल भरकर उतराया।
फूला फला बिटप गरुआया, लतिकाओं से लिपटाया।
जंगल मंगल साज सजाया, उत्सव साधन सब पाया।
जुगनू ने तो जोति जगाया, दीपक ने समूच दरसाया।
झिल्लीगन झनकार मचाया, सुर सारंगी सरसाया।
घिघिर घन मधुर मृदंग बजाया, तिरवट दादुर ने गाया।
नाच मयूरों ने दिखलाया, हर्षित चातक चिल्लाया।
सखियों ने मिलि मोद मनाया, दिन कजली का नियराया।
पिया प्रेमघन चित ललचाया, झूला कभी न झुलवाया।