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कजली / 19 / प्रेमघन

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सैयाँ अजहूँ नाहीं आय! जियरा रहि-रहि के घबराय॥
घिरि घन भरे नीर नगिचाय! बरसैं, पीर अधिक अधिकाय॥
दुरि-दुरि दमकै दामिनि धाय। मोरा जियरा डरपाय॥
सोही हरियारी छिति छाय। बिच-बिच बीरबधू बिखराय॥
मोरवा नाचै हिय हरखाय। पपिहा पिया! पिया! चिल्लाय॥
कर पग मेंहदी रंग रँगाय। सूही सारी पहिरि सुहाय॥
सखियाँ झूलैं कजरी गाय। मैं घर बैठि रही बिलखाय॥
झिल्लीगन झनकार सुनाय। दादुर बोलैं रोर मचाय॥
पिया प्रेमघन ल्यावो, हाय! अब दुख नाहीं सहि जाय॥