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कजली / 55 / प्रेमघन
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उर्दू भाषा
दिल फ़रेब दिन हैं सावन के॥
घिरकर काली घटा दिखाती है जोबन को चर्ख़ कुहन के.
सब्ज़ा छाया ज़मीं प' हँसते हैं खिलकर गुलहाय चमन के॥
घूम रही हैं बीरबहूटी गोया बिखरे लाल इमन के.
चमक रही है बर्क़ सीखकर नखरे नाज़नीनेपुरफ़न के॥
नाच रहे हैं मोर पपीहे शोर मचाते हैं गुलशन के.
गाकर झूला झूल रहे हैं माह लका सब सीम बदन के
पियो मये गुलरंग भूलकर सब ख़याल बातिल बचपन के.
अब्र बरसता है वाराँ दो बोसेदो लिल्लाह दहन के॥100॥