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अनमेल विवाह / प्रेमघन

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नैहर में देबै बिताय बरु बिरथा बैस जवानी रामा!
हरि! हरि! का करबै लै ई छोटा सजनवाँ रे हरी!

पापी पण्डित पामर पाधा गैलैं तिलक चढ़ावै रामा!
हरि! हरि! बनरा से बनरा कै दिहेनि बयनबाँ रे हरी!
नहिं कुल, रूप, नहीं गुन, विद्या, बुद्धि, सुभाव रसीला रामा!
हरि! हरि! नहीं सजीला देखन जोग जवनवाँ रे हरी!

आय बरात दुआरे लागी आली! चढ़ी अटारी रामा!
हरि! हरि! देखि दूलहा सूखल मोरा परनवाँ रे हरी!
गावन लागीं बैरिन बुढ़िया लोग ब्याह की गीतैं रामा!
हरि! हरि! बाजन लागे हाय! ब्याह बाजनवाँ रे हरी!
सुनत प्रान अधरन सों लागे ब्याकुलता अति बाढ़ी रामा!
हरि! हरि! भसम होत हिय भावै नहीं भावनवाँ रे हरी!

गोदी चढ़े दूध से पीयत दूलह ब्याहन आए रामा!
हरि! हरि! लै बैठाये माड़व बीच अगनवाँ रे हरी!
बरबस पकरि नारि घिसियावैं पैर परै नहिं आगे रामा!
हरि! हरि! नाहीं मानै हमरा कोऊ कहनवाँ रे हरी!
बूढ़े बेईमान बाप जी पूजन पाँव लगे हैं रामा!
हरि! हरि! मानो उनके फूटे दोऊ नयनवाँ रे हरी!

पकरि हाथ संकल्पत बेचारी बेटी बेदरदी रामा!
हरि! हरि! कैसे बची! करी अब कवन बहनवाँ रे हरी!
नहि उर दया, धर्म्म नहिं, लज्जा लोक लेस मन ल्यावै रामा!
हरि! हरि! बोरत बा ई जनम मोर दुसमनवाँ रे हरी!
बेचत गाय कसाई के कर! कोऊ हरकत नाहीं रामा!
हरि! हरि! जुरे नात औ भाई सबै सयनवाँ रे हरी!

जोबन जोर जवानी के मद माती मैं अलबेली रामा!
हरि! हरि! तेके हेरेनि बर बालक नादनवाँ रे हरी!
मारेडर के सूखै! नजर मिलावै काउ बेचारा रामा!
हरि! हरि! एड़ी उचकायहु ना छुवै जोबनवाँ रे हरी!
धीर धरौं केहि भाँति! कहत कुछ हम से बनै नहीं अब रा।!
हरि! हरि! कैसे जाबै! केकरे सँगे! गवनवाँ रे हरी!

जथा जोग बर सुन्दर देय पिया मता लड़िकी के रामा!
हरि! हरि बरु न देह दयजा, कपड़ा गहनवाँ रे हरी!
मात पिता तो धोखा दिहलेनि लखी हाल दूलह की रामा!
हरि! हरि! रामचन्द्र अब तौ तुहँई सरनवाँ रे हरी!

काहू बिधि बीते मधु माधव मास कठिन रितु आई राम!
हरि! हरि बोलन लगो मोरवा बनवाँ-बनवाँ रे हरी!
चलिबे नीको लगो पवन पुरवाई बदरा छाये रामा!
हरि! हरि! लागे अब तो हाय! सरस सावनवाँ रे हरी!
लगी प्रान अगुतान कैसहूँ धीर धरी ना जाई रामा!
हरि! हरि मारन लागो मैन पैन बाननवाँ रे हरी!
वरु विष खाय मरब! सूतब हनि कारी करद करेजवाँ रामा!
हरि! हरि निकरि जाब को काहू के गोहनवाँ रे हरी!
ऐसे देस जाति कुल रीति नीति में है निबाह कै रामा!
हरि! हरि! कहौ प्रेमघन दूसर कवन जतनवाँ रे हरी!॥139॥