भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

क्षोभ 1 / प्रेमघन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

है कैसी कजरी यह भाई? भारत अम्बर ऊपर छाई॥
मूरखता, आलस, हठ के घन मिलि-मिलि कुमति घटा घिरिआई.
बिलखत प्रजा बिलोकत छन-छन चिन्ता अन्धकार अधिकाई॥
बरसत बारि निरुद्यमता की, दारिद दामिनि दुति दरसाई.
दुख सरिता अति बेग सहित बढ़ि, धीरज बिपुल करारगिराई.
परवसता तृन छाया लियो छिति, सुख मारग नहिं परत लखाई.
जरि जवास जातीय प्रेम को, बैर फूट फल भल फैलाई॥
छुआ रोग सों पीड़ित नर, दादुर लौंहा हाकार मचाई;
फेरि प्रेमघन गोबरधनधर! दौरि दया करि करहु सहाई॥141॥

॥दूसरी॥

प्रधान प्रकार की सामान्य लय

गारत भयो भलें भारत यह आरत रोय रह्यो चिल्लाय॥
बल को परम पराक्रम खोयो विद्या गरब नसाय।
मन मलीन धन हीन दीन ह्वै पर्यो विवस बिलखाय॥
नहिं मनु, व्यास, कणाद, पतंजलि गए शास्त्र जे गाय।
गौतम, शंकर हू नाहीं जे सोचैं कछू उपाय॥
नहिं रघु, राम, कृष्ण, अर्जुन, कृप, भीषम भट समुदाय।
विक्रम, भोज, नन्द नहिं जे भुज बल इहि सके बचाय॥
नहिं रणजीत, शिवाजी, बापा, पृथिवी पृथिवीराय।
जे कछु वीर धीरता देते निज दिखाय तन धाय॥
गई अजुध्या, मथुरा, काशी, झूँसी दिल्ली ढाय।
सोमनाथ के टुकड़े मक्के गज़नी पहुँचे जाय॥
नास कियो म्लेच्छन बेपीरन भली भाँति तन ताय।
काको मुख लखि धीर धरै यह नाहिं कछू समुझाय॥
भये यहाँ के नर अधमरत दास वृत्ति मन भाय।
कायर, क्रूर, कुमति, निर्लज्ज, आलसी, निरुद्यम आय॥
दुर्भागनि निद्रा सों निद्रित दीजै इन्हैं उठाय।
बरसहु दया प्रेमघन अब नारायण होहु सहाय॥142॥

॥तीसरी॥

जाहिल औ जंगली जानवर कायर क्रूर कुचाली रामा।
हरि हरि हाय! कहावैं भारतवासी काला रे हरी॥
भये सकल नर में पहले जे सभ्य सूर सुखरासी रामा॥
हरि हरि सुजन सुजान सराहे विबुध विशाला रे हरी॥
सब विद्या के बीज बोय जिन सकल नरन सिखलाये।
हरि हरि मूरख, परम नीच, ते अब गिनि जाला रे हरी॥
रतनाकर से रतनाकर जहँ धनी कुबेर सरीखे रामा।
हरि हरि रहे, भये नर तहँ के अब कँगाला रे हरी॥
जाको सुजस प्रताप रह्यो चहुँ ओर जगत में छाई रामा।
हरि हरि ते अब निबल सबै बिधि आज दिखाला रे हरी॥
सोई ससक, सृगाल सरिस अब सब सों लहैं निरादर रामा।
हरि हरि संकित जग जिनके कर के करवाला रे हरी॥
धर्म, ज्ञान, विज्ञान, शिल्प की रही जहाँ अधिकाई रामा।
हरि हरि उमड़यो जहँ आनन्द रहत नित आला रे हरी॥
बिना परस्पर प्रेम प्रेमघन तहँ लखियत सब भाँतिन रामा।
हरि हरि साँचे-साँचे सुख को सचमुच ठाला रे हरी॥143॥