भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

क्षोभ 1 / प्रेमघन

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:04, 23 मई 2018 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

है कैसी कजरी यह भाई? भारत अम्बर ऊपर छाई॥
मूरखता, आलस, हठ के घन मिलि-मिलि कुमति घटा घिरिआई.
बिलखत प्रजा बिलोकत छन-छन चिन्ता अन्धकार अधिकाई॥
बरसत बारि निरुद्यमता की, दारिद दामिनि दुति दरसाई.
दुख सरिता अति बेग सहित बढ़ि, धीरज बिपुल करारगिराई.
परवसता तृन छाया लियो छिति, सुख मारग नहिं परत लखाई.
जरि जवास जातीय प्रेम को, बैर फूट फल भल फैलाई॥
छुआ रोग सों पीड़ित नर, दादुर लौंहा हाकार मचाई;
फेरि प्रेमघन गोबरधनधर! दौरि दया करि करहु सहाई॥141॥