भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोहा / 1 / रामरक्षा मिश्र विमल

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:32, 4 अगस्त 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामरक्षा मिश्र विमल |अनुवादक= |सं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

के आपन के आन बा बहुत कठिन पहचान।
आफति तक जे साथ दे ओकरे आपन जान॥1॥

झट दे निरनय जनि लिहीं घिन आवे भा खीस।
झुक जाए कब का पता कट जाए कब सीस॥2॥

बहल हवा बहकल जिया मन में उमड़ल प्यार।
जब उनुका मुसकान पर बिखरल केस लिलार॥3॥

नेतन माथे जे मढ़े धरती के सभ दोस।
अइसन बुधिजीवी जिए धरती के अफ सोस॥4॥

गलत आदमी पद सही-सही ग़लत असथान।
जहाँ बहुलता में मिले ओकर कवन ठिकान॥5॥

दोसरा से डर के जिए ऊ नर कीट समान।
अपना से डर के जिए से सच्चा इनसान॥6॥