भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चाँद-सूरज की तरह बढ़ते रहे / ब्रह्मजीत गौतम

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:52, 1 सितम्बर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ब्रह्मजीत गौतम |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चाँद-सूरज की तरह बढ़ते रहे
ज़िन्दगी की मूर्ति हम गढ़ते रहे

प्यार के मानी समझ पाये नहीं
बेसबब ही पोथियाँ पढ़ते रहे

मर गया वो मुफ़्लिसी में चित्रकार
चित्र जिसके स्वर्ण से मढ़ते रहे

भाइयों में यों तो थीं नज़दीकियाँ
पर दिलों में फ़ासले बढ़ते रहे

कर हमें उपयोग सीढ़ी की तरह
वे प्रगति की मंज़िलें चढ़ते रहे

रौंद डाला मालियों ने ही चमन
आँधियों पर तुह्¬मतें मढ़ते रहे

 पश्चिमी तहज़ीब को क्या दोष दें
'जीत' हम ख़ुद उस तरफ़ बढ़ते रहे