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तुमको निहरता हूँ सुबह से ऋतम्बरा / दुष्यंत कुमार
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तुमको निहरता हूँ सुबह से ऋतम्बरा
अब शाम हो रही है मगर मन नहीं भरा
ख़रगोश बन के दौड़ रहे हैं तमाम ख़्वाब
फिरता है चाँदनी में कोई सच डरा—डरा
पौधे झुलस गए हैं मगर एक बात है
मेरी नज़र में अब भी चमन है हरा—भरा
लम्बी सुरंग-से है तेरी ज़िन्दगी तो बोल
मैं जिस जगह खड़ा हूँ वहाँ है कोई सिरा
माथे पे हाथ रख के बहुत सोचते हो तुम
गंगा क़सम बताओ हमें कया है माजरा