भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

काश! आदमी सिर्फ आदमी होता! / मुकेश निर्विकार

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:40, 20 जुलाई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मुकेश निर्विकार |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जानवरों से कोई
क्यों नहीं पूछता
जात उनकी?
पंछियों का
क्यूँ नहीं होता
कोई धर्म?
पहनते क्यों नहीं है
कोई संप्रदाय-चिन्ह
पेड़-पौधे
किस मज़हब का
राग अलापती है
बहती नदी?

ये सभी आजाद हैं
इस ताम-झम से
नहीं बाध्य तनिक भी
आदमी की तरह
किसी पंथ, मजहब, धर्म,
संप्रदाय के बाड़े में
कैद रहने के लिए!

अपने सुसंकृत और सभ्य
बनने का दुष्परिणाम
भुगत रहा है आदमी।

काश!
आदमी सिर्फ आदमी होता!
वनमानुष की तरह—
बे-पहचान
सिर्फ आदमज़ाद,
निखालिस एक जीव!