भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आ पहुँचा जब द्वार तुम्हारे / हरीश प्रधान

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:18, 11 सितम्बर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरीश प्रधान |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आ पहुँचा जब द्वार तुम्‍हारे
याचक तो बन गया सहज ही
तुम्‍ही कहो, फिर यों अब अपनी
अभिलाषाएँ और दबाऊँ?

चाहा संयम की चादर से
इच्छाओं को कफन उढ़ा दूँ
यौवन के चंचल उभार पर
गुरूताओं का बोझ चढ़ा दूँ

लेकिन दुनियाँदार नज़र ने
जब बदनाम मुझे कर डाला
फिर यों उठते अरमानों का
घुटन भरा दायरा बनाऊँ?

आ पहुँचा जब द्वार तुम्‍हारे...
लाख-लाख कोशिश की
तट पर खड़े-खड़े ये उमर गुजारूँ
सीमाओं की कोर बांध लूं
बोझिल होकर नहीं पुकारूं

पर कम्‍बख्‍़त लहर ने आकर
मझधारों में नाव डाल दी
क्‍यों ना? अब लहरों से खेलूं
तूफानों से यों घबराऊँ
आ पहुँचा जब द्वार तुम्‍हारे ...