भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लाज की यह बात / रामगोपाल 'रुद्र'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:43, 6 नवम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामगोपाल 'रुद्र' |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लाज की यह बात मैं कैसे छिपाऊँ?
जानता संसार मैं क्या हूँ, कहाँ हूँ!

हो रहे तुम आज घर-बाहर उजागर,
दिप रहे कलधौत आभा से, धरा पर;
मैं तुम्हारी लाज दीप-तले अँधेरा
पास भी हूँ दूर, ख़ुद आँखें चुराकर;
दो मुझे आलोक, या, ऐसे छिपा लो
दृष्टि दुनिया की न जाय, मैं जहाँ हूँ!


मौन हैं मधु-कुंज ये हिम-हार कैसे!
स्तब्ध तारक-पुंज ये अंगार कैसे!
छेड़ निशि का राग, धुन पर 'पी कहाँ' की
साधते तुम सिंधु पर स्वर-तार कैसे!
रास-राजित श्री-शिखर पर, शशि! न भूलो,
छाँह में छविहीन छाया मैं यहाँ हूँ!