भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आज मेरे दृग उनींदे / रामगोपाल 'रुद्र'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:56, 6 नवम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामगोपाल 'रुद्र' |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज फिर कोई लगा ठोकर जगा वह बेकली दे!

पँखरियाँ बिखरें हृदय की, नाचकर क्षण-भर गगन में;
अधिखिले अनुराग, भीत पराग लुट जाएँ विजन में;
ओस बन ढुल जाय जो, वह स्वप्न फिर कोई छली दे!

साधना की आँख में अपलक बसा हो बिन्दु जैसे,
नीरनिधि के नयन-मन में पूर्णिमा का इन्दु जैसे,
दर्द की तस्वीर वह मकरन्द फिर कोई अली दे!

हृदय हो जिसका हिमोपल, स्मरण हो जिसका अनल-सा,
मिलन हो शीतल सुधामय, विरह हो जलते गरल-सा,
निठुर वह कोई, ज़रा फिर, पीर की भर अंजली दे!

कब खिली, कैसे खिली, किस थल खिली, जाने न कोई;
लेश भी रह जाय शेष न चिह्न, कब अनिमेष सोई;
मृत्यु पर मेरी, नहीं दो बूँद भी कहीं दे!