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आज बजती ही नहीं यह बीन / रामगोपाल 'रुद्र'

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आज ऐसा लग रहा है,
दर्द-सा कुछ जग रहा है,
बिसुधि में सब पग रहा है,
प्राण कातर दीन!

तार ढीले हो रहे हैं,
दृग पनीले हो रहे हैं,
गीत गीले हो रहे हैं,
ताल-लय-स्वर-हीन!

मोह घिरता आ रहा है,
तम हृदय पर छा रहा है,
चित्र होता जा रहा है–
दूर, क्षीण, मलीन!

आज कोई, काश! होता,
छाँह बनके पास होता;
आप जीवन-धन न खोता
मूढ़ मानस-मीन!

क्या करूँ? कैसे बजाऊँ?
तार-सुर बिखरे सजाऊँ?
रागिनी कैसे जगाऊँ,
पास जबकि तुम्हीं न!