भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रोज़ तूफान आकर डराते रहे/ जहीर कुरैशी

Kavita Kosh से
सम्यक (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:18, 3 अक्टूबर 2008 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रोज तूफान आकर डराते रहे
फिर भी, पंछी उड़ानों पे जाते रहे

एक पागल नदी के बहाने सही
हिमशिखर के भी सागर से नाते रहे

लोग सो कर भी सोते नहीं आजकल,
रात सपनों में जग कर बिताते रहे

मन से दोनों निकट आ न पाए कभी
रोज तन से जो नजदीक आते रहे

वे जो चुपचाप गुस्से को पीते रहे
मुठ्ठियाँ भींचकर कसमसाते रहे

झूठ, सच की तरह बोलने का हमें
राजनीतिज्ञ जादू सिखाते रहे

अंतत: देह उसकी सड़क बन गई
लोग आते रहे, लोग जाते रहे !