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दिखता है बाहर से जाता जो / रामकुमार कृषक

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दिखता है बाहर से जाता जो
भीतर से जाता है कौन
सूनापन ठहराता / गहराता मौन !

कितने सन्दर्भ
तैरकर
उड़ जाते आँखों की राह
अर्थहीन हो जाती
हर चंचल चाह,

गाली-सी दे जाता पुरवैया पौन !

कितना नैराश्य
ओढ़कर
बेचैनी जाती है डूब
अर्थवान हो उठती
सांसों की ऊब,

अपने में बतियाता अपना ही भौन !

03 मार्च 1974