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जली है रोज़ / रामकुमार कृषक

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जली है रोज़
तिल - तिल कर
तपी है जेठ
भर - दुपहर
निरन्तर
चक्रवातों में
बगूलों में झुलसते
घूमते पल - पल,

एक प्रक्रिया
धरित्री की
समन्दर की
समय के ठीक अन्तर की
ज़रूरी है –
कि कल
हलचल
दिखाई दे
दिशाओं में
घुले सागर
हवाओं में !

19 जून 1975