एक यात्रा के दौरान / तीन / कुंवर नारायण
कवि: कुंवर नारायण
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एक गहरे विवाद में
फँस गया है मेरा कर्तव्य-बोध :
ट्रेन ही नहीं एक रॉकेट भी
पकड़ना है मुझे अन्तरिक्ष के लिए
ताकि एक डब्बे में ठसाठस भरा
मेरा ग़रीब देश भी
कह सके सगर्व कि देखो
हम एक साधारण आदमी भी
पहुँचा दिए गए चाँद पर
पृथ्वी के आकर्षण के विरुद्ध
आकाश की ओर ले जानेवाले ज्ञान के
हम आदिम आचार्य हैं ।
हमारी पवित्र धरती पर
आमंत्रित देवताओं के विमान :
न जाने कितनी बार हमने
स्थापित किए हैं गगनचुम्बी उँचाइयों के कीर्तिमान !
पर आज
गृहदशा और ग्रहदशा दोनों
कुछ ऐसे प्रतिकूल
कि सातों दिन दिशाशूल :
करते प्रस्थान
रख कर हथेली पर जान
चलते ज़मीन पर देखते आसमान,
काल-तत्व खींचातान : एक आँख
हाथ की घड़ी पर
दूसरी आँख संकट की घड़ी पर ।
न पकड़ से छूटता पुराना सामान,
न पकड़ में आता छूटता वर्तमान।