एक यात्रा के दौरान / सात / कुंवर नारायण
कवि: कुंवर नारायण
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क्यों किसी की सन्दूक का कोना
अचानक मेरी पिण्डली में गड़ने लगा ?
क्यों मेरे सिर के ठीक ऊपर टिका
गिरने-गिरने को वह बिस्तर अखरने लगा ?
कौन हैं वे ?
क्यों मेरी चिन्ताओं का एक कोना
उनसे भरने लगा ?-
मेरी एक ओर बैठा वह
विक्षिप्त –सा युवक,
मेरी दूसरी ओर वह चिन्तित स्त्री,
अपने बच्चेको छाती से चिपकाये
दोनों के बीच मैं कौन हूँ --
केवल एक आरक्षित जगह का दावेदार ?
वह स्त्री और वह बच्चा
क्यों नहीं दो मनुष्यों के बीच
एक पूर्णतः सुरक्षित संसार ?
क्यों यह निरन्तर आने जाने का क्रम
अनाश्वस्त करता -
और उस पूरी व्यवस्था को ध्वस्त
जिस हम किसी तरह
दो स्टेशनों के बीच मान लेते हैं ?
जो अनायास मिलता और छूट जाता
क्यों ऐसा
मानो कुछ बनता और टूट जाता ?