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अध्याय १० / भाग २ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति

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इन्द्रिन में मन, देवन में देव,
और सामवेद हूँ वेदन में.
सब प्रानिन में चेतनता हूँ ,
बल ज्ञानन कौ मैं हूँ मन में

एकादश रुद्रन में शंकर ,
मैं यक्ष कुबेर हूँ असुरन में,
मैं आठ वसुन माहीं अग्नि,
गिरिराज सुमेरु, सुमेरन में

में मुख्य पुरोहित देवन कौ,
हे पार्थ! बृहस्पति जानि मोहे.
सागर हूँ सरि- सरितन माहीं.
स्कन्द सेनापति मानि मोहे

भृगु ऋषि महर्षिन माहीं मैं,
ओंकार हूँ सगरे आखर में.
सब यज्ञन में जप यज्ञ तथा ,
मैं अचल, अचल सब गिरिवर में

वृक्षन माहीं पीपल विराट,
ऋषि नारद हूँ ऋषियन माहीं.
रथ चित्र हूँ मैं गान्धर्वंन में,
मैं कपिल मुनि मुनियन माहीं

अश्वन में उच्चश्रवा, गज में,
मैं ही तो एरावत गज हूँ.
मनुजन में राजा एकराट,
मैं दिग्-दिगंत कौ दिग्गज हूँ

सब गौंअन में हूँ कामधेनु,
और कामदेव हूँ प्रजनन में.
सब सर्पन माहीं सर्प वासुकि,
बल वज्र हूँ सगरे शास्त्रन में

में शेषनाग सब नागन में ,
और वरुण देव जलधर माहीं.
पितरों में अयर्मा पितरेश्वर ,
यमराज हूँ , राजेश्वर माहीं

प्रहलाद हूँ सब दैत्यन माहीं ,
और काल माहीं क्षण,पल मैं हूँ.
मृगराज हूँ सब पशुयन माहीं .
और पक्षिन माहीं गरुण मैं हूँ

पावन कर्ता में पवन , शस्त्र
धारण कर्ता में राम हूँ मैं,
मत्स्यन माहीं मैं मगरमच्छ ,
नदियन में गंगा धाम हूँ मैं

अति आदि अंत और मध्य सृष्टि ,
कौ आत्म ज्ञान सब ज्ञानिन में.,
बहु वाद विवादन में निर्णय ,
सत युक्ति हूँ सत्य प्रमाणन में

सब आखर माहीं मैं अकार,
और द्वंद समास समासन में,
सुन महाकाल कौ मुख विराट
धारक पोषक सब कालन में

यश, कीर्ति, क्षमा, श्री, वाक्, धृति,,
स्मृति, मेघा, हूँ नारिन में .
उत्पत्ति विनाशन कौ कारण ,
अथ कर्म माहीं मैं कारन में

शुचि गेय श्रुतिन में साम बृहत,
गायत्री छंद हूँ छंदन में,
शुभ माघ कौ मास महीनन में.
ऋतु में बसंत हूँ ऋतुयन में

छल छद्म माहीं मैं द्युत करम ,
अति तेजस्वी तेजस्विन में,
जय निश्चय मैं विजिताओं में ,
सात्विक मन सात्विक पुरुषन में

कुल यादव में कृष्ण, पाण्डु जन,
माहीं धनंजय अर्जुन हूँ.
कवियों में हूँ कवि शुक्राचार्य ,
मुनियों में वेदव्यास मुनि हूँ

बल दंड दमन की शक्ति में,
और चाह विजय नीतिज्ञन में,
अति मौन, गोप के भावन में,
और तत्व कौ ज्ञान हूँ ज्ञानिन में

सब प्रानिन के कौन्तेय सुनौ,
सिरजन कौ कारन भी मैं हूँ.
चार-अचर सबहिं कौ मूल हूँ मैं,
यहि सृष्टि कौ कारन मैं हूँ

प्रिय मोरे परन्तप मोरी सुनौ,
मोरी दिव्य विभूति कौ अंत कहाँ ?
विस्तार विभूतिन कौ आपुनि,
संक्षेपन तोसों है नैकु कहा

जेहि-जेहि भी वस्तु विभूतिन मय
बल कान्ति सों युक्त है , मोरी हैं,
मोरे तेज के अंशन जायो सों.
ब्रह्माण्ड की सत्ता मोरी है

अथ बहुतहि जाननि सों अर्जुन !
किम, कैसो प्रयोजन होवत है,
एक अंश सों मोरी माया के
जग सगरौ धारण होवत है