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अध्याय ९ / भाग १ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति

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श्री भगवानुवाच
अति गोप जो ज्ञान वही , अर्जुन!
कौ गूढ़ रहस्य कहहूँ तोसों.
जेहि जानि विषादमयी जग सों,
हुइ मुक्ति, रहस्य सुनौ मोंसों

यहि ज्ञान पुनीत है फलदायी,
अति होत सुगम, अविनाशी है.
यहि ज्ञान गुरु, अति गोप महिम,
यहि धर्म मयी सुख राशी है.

यहि ज्ञान के तत्त्व विहीन भये,
तिनके मन श्रद्धा होत कहाँ ?
और ना ही परन्तप मैं उनकौ,
बहु जन्म-मरण तिन होत वहॉं

परब्रह्म प्रभोमय जग सगरौ,
यहि जग मुझ मांहीं समाय रह्यो.
मैं प्रानिन कौ आधार तथापि,
कदापि न नैकु समाय रह्यो

कर्ता, भर्ता, हर्ता सबकौ
जग सृष्टि नियंता धारक हूँ.,
सब मोसों, मैं नाहीं उनमें.
अस अद्भुत माया कारक हूँ

जस वायु गगन सों जनमत है,
नभ माहीं बसत अपि नित्य सदा,
तस जग सगरौ , मुझ माहीं बसे.
मोरे संकल्पन वश होत सदा

यहि कल्प के अंत में हे अर्जुन!
मुझ माहीं सबहिं लय होवत है.
पुनि कल्प के आदि में केवल बस,
एक कृष्ण , रचयिता होवत है

मम त्रिगुणी माया के वश ही,
मैं रचना कौ व्यवहार करूँ.
अनुसार करम सब प्रानिन के
पुनि-पुनि मैं यह संसार रचूँ

फल आस विहीन उदासी वत
हे अर्जुन ! होत मैं करमन में,
सों कर्तापन कौ भाव मोहें ,
नहीं बांधत कर्म के बंधन में

जग सकल चराचर और माया,
मोरे सकाश सों पार्थ ! सुनौ.
यहि हेतु सों पुनि आवन-जावन ,
कौ चक्र जगत अथ, अर्थ गुनौ

मैं एकही ब्रह्म सकल जग कौ,
पर मूढ़ न मोहे जानाति हैं.
तन पाय के मानव को तबहूँ ,
मोहे तुच्छ नगण्य बतावति हैं

जिन व्यर्थ आस और कर्म गहें
और व्यर्थ कौ ज्ञान वे मूढ़ जना.
तिन आसुरी तामस वृत्ति अधम
अज्ञानहूँ तिन माहीं होत घना

जिन दैविक भावन के ज्ञानी ,
मोहे सृष्टि मूल में जानाति हैं .
अविनाशी जानि अनन्य मना,
मोरो नित्य भजन वे गावति हैं

जिन भक्तन दृढ़ मन भक्ति भजन,
मोहे पाउन हेतु प्रयास करै.
मम भक्ति, अनन्य सों ध्यान करै,
और बारम्बार प्रणाम करै

जिन पूजे रूप विराट मेरौ,
तिन जित देखे, तित श्याम मयी,
कोऊ सेवक स्वामी भाव भजे,
कोऊ यज्ञ रूप सों ज्ञान मयी

मैं यज्ञ सुधा घृत मन्त्र हूँ मैं,
मैं पावक, अन्न, हवन मैं हूँ.
मैं कर्म क्रतु औषधि मैं हूँ,
जड़ - चेतन माहीं बसत मैं हूँ

फल कर्म-प्रदाता करमन कौ,
धारण कर्ता, आधार हूँ मैं.
पितु-मातु पितामह, गेय शुचि;
ऋग, साम, यजु ओंकार हूँ मैं