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अध्याय ७ / भाग १ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति

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श्री भगवानुवाच
मम पार्थ! परायण तू मोरे,
आसक्त मना, हुइ जा, हुइ जा.
जेहि जानि सकल संशय निःशेष,
तेहि सार-तत्व अर्जुन! सुनि जा

सुन पार्थ! मर्म की बात गहन,
और ज्ञान कौ तत्व विशेष महे.
जेहि जानि के जाननि कौ जग में,
कछु जाननि जोग न शेष रहे

अस सिद्धि की चाह हजारन में,
कोऊ एक मनुज धरि पावत है.
कोऊ एक कदाचित बिरलौ ही,
मोहे तत्व सों जानिबो चाहत है

जल, पावक, धरनी, वायु, गगन
मन, बुद्धि, अहम् यहि प्रकृति है.
इन आठन माहीं विभाजित जो ,
संसार मोरी अनुपम कृति है

यहि मोरी जड़ प्रकृति अपरा,
इन आठन मांहीं विभक्त भई ,
और दूजी चेतन जो है परा,
जेहि सों यहि सृष्टि व्यक्त भई,

सगरौ जग ही तो परा-अपरा,
इन दोउन प्रकृतिंन सों उपजे,
में मूलहिं कारण सृष्टि कौ,
मोंसों ही प्रलय- सृष्टि सरजे

हे अर्जुन! मोरे सिवा जग में,
कहूं किंचित कोऊ अस्तित्व नहीं,
माला के सूत्र समान जगत कौ,
धारक मैं अत्युक्ति नहीं

हे अर्जुन! जल माहीं रस मैं,
सूरज शशि माहीं प्रकाश मेरौ,
वेदन माहीं ओंकार, गगन
में शब्द पुरुष, पौरुष मेरौ

सुन धरा में गंध सुवासित हूँ,
अग्नि में तेज हूँ , प्रानिन में.
मैं शक्ति जीवनी, प्राण सुधा,
और तप हूँ तेज तपस्विन में

हे अर्जुन! तू सब प्रानिन कौ,
सब मूल सनातन जानि मोहे.
में तेज तपस्विन कौ बिरलौ ,
ज्ञानिन कौ ज्ञान भी जानि मोहे

आसक्ति काम रहित बल जो,
ऐसो बल मैं बलवानन में,
मैं धर्म सों युक्त हूँ काम प्रबल
अस रूप बसत प्रति प्रानिन में

गुण राजस, तामस, सत्व जदपि,
सब मोसों ही तो उपजत हैं.
ना मैं उनमें , ना वे मुझमें ,
नाहीं नैकु तथापि रहवत हैं

राजस, तामस गुण मन भावन
सों जगत विमोहित है सगरौ.
अति होत परे गुण तीनहूँ सों,
कोऊ तत्व ना जानाति है मेरौ

यहि अद्भुत दिव्य त्रिगुणी माया,
मोरी योग की माया दुस्तर है.
जो नित्य निरंतर मोहे भजें,
माया सों तरें जो दुष्कर है

जिनकौ माया ने ज्ञान हरयो,
आसुरी वृति धारक, अधम नरा.
दुष्कर्मी तामसी मूढ़ जना ने
नैकु न मोरा भजन करा