भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अध्याय ७ / भाग २ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति

Kavita Kosh से
सम्यक (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:05, 17 अक्टूबर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मृदुल कीर्ति |संग्रह=श्रीमदभगवदगीता / मृदुल की…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हे श्रेय भरतवंशी अर्जुन!
विधि चार के भक्त भजें मोहे.
जिज्ञासु, ज्ञानी और दुखी,
कुछ अर्थ के हेतु गहें मोंहे

ज्ञानी इन मांहीं भक्त विरल,
तत्त्वज्ञ मोहे अति प्रिय लागे.
मैं इनकौ प्रिय , ये मोरे प्रिय,
अस प्रीति परस्पर ही जागे

यद्यपि प्रिय भक्त मोरे अर्जुन!
सगरे ही होत उदार मना.
पर ज्ञानी उत्तम होत महे
ऐसो कछु मेरौ विचार बना

तत्त्वज्ञन कौ बहु जन्मन के,
तौ अंत में ज्ञान ये होवत है..
सर्वस्व मोरे वासुदेव ही हैं ,
अस संत तौ दुर्लभ होवत है

आपुनि प्रकृति सों प्रेरित और
अवलंबन विषयन कौ करिकै,
पावत हैं उन-उन देवन कौ ,
ध्यावत जिन-जिन चिंतन करिकै

जेहि-जेहि देवन की श्रद्धा सों,
जेहि-जेहि भी भक्त मोहे ध्यावै,
तिन भक्तन की तिन देवन में,
श्रद्घा स्थिर कर फल पावै

अथ मोरे सहाय सों हीं, निश्चय ,
इन देवन सों ही फल पावै..
इच्छित फल पाएं तो पाया करें,
पर मोसों कदापि न मिल पावैं

फल कर्म विनासत है, क्योंकि ,
उन अल्प मति अल्पज्ञन के.
भजें देव तौ देव तिन्हें मिलिहैं,
भज मोहे, बने ब्रजनंदन के

अविनाशी अजन्मा जानि मोहे,
अल्पज्ञ भ्रमित हुइ जावत है.
मोहे मानुष के जस समुझत है.
ऋत तत्त्व न मोरो पावत हैं

में आपुनि योग की माया सों,
अणु कण-कण माहीं समाय रह्यो.
अज्ञानी जन मेरौ जन्म मरण
पुनि-पुनि होवत भरमाय रह्यो

कल आज और कल त्रिकाला.
को जाननि देखनि हारा हूँ.
पर श्रद्धा भक्ति विहीनन सों ,
में नैकु न जाननि हारा हूँ

इच्छा द्वेषन के कारण ही ,
होवत सुख-दुःख यहि जग माहीं.
अज्ञान सों ही उपजत सगरे ,
यदि ज्ञान हो तौ एकहूँ नाहीं

शुभ करमन सों जिन पुरुषन के,,
सब पाप विनाशत शेष भये.
तिन मोह के द्वंद सों मुक्त भये ,
और मोसों युक्त विशेष भये

जो मृत्यु जरा सों छूटन कौ ,
हुइ मोरे परायण यत्न करै,
जन ब्रह्म सकल आध्यात्म करम ,
कौ जानिकै जीवन धन्य करै

अधिदैव, भूत और यज्ञन कौ,
श्री कृष्ण सरूप ही जानत हैं..
तिन अंतिम काल प्रयाण में तौ
श्री कृष्णा कौ पहिचानत हैं