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अध्याय १२ / भाग २ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति

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असमर्थ यदि व्यवहारं में,
और मर्म लगै कि दुष्कर है,
फल कर्म बिसारि, विजित मन सों,
शरणागत मोरे, सुखकर है

बिनु जाने मरम अभ्यास कियौ,
तस ज्ञान सों ज्ञान परोक्ष भल्यो .
मम ध्यान धरै यहि तासों भल्यो.
निष्काम करम, अति श्रेय भल्यो

जिन द्वेशन स्वारथ हीन भये,
ममता और अहम विहीन भये,
सुख दुखन प्रीति प्रतीति नाहीं,
तिन मोरे ध्यान विलीन भये

मन इन्द्रिन जिन वश माहीं किये ,
संतोष निरंतर ध्यान किये
अर्पित मन बुद्धि समर्पित जो,
वही भक्त मेरौ, मैं ताके हिये

उद्विग्न करै न होय स्वयं,
भय, हर्ष, अमर्ष विहीन जना.
अस भक्त जो सम्यक संयत मैं,
उनकौ, वे मोरे सनेही मना

अति पावन दक्ष , ना चाह हिये
बिलगाय गयौ जिन दुखन सों.
परित्यागी अकर्ता प्रिय मोरे,
लपटात तिन्हें,आपुनि मन सों

न द्वेष, न हर्ष, न शोच करें,
नाहीं चाह धरें, हिया माहीं कोऊ .
शुभ कर्म अशुभ फल त्याग करैं,
मोहे भक्त, अति प्रिय होत सोऊ

सुख दुखन , शीतन तापन में,
अपमान-मान , रिपु -मित्रं में,
सब माहीं रहै सम भावन में,
आसक्ति बिना संसारन में

सुख माने जेहि विधि कृष्ण धरै
सम निंदा स्तुति माहीं हिया.
ना नेह -निकेत मनन प्रिय जो,
स्थिर मति भक्तन मोह लिया

जी उक्त धर्म मय अमिय पान,
निष्काम भाव सों पान कियो ,
तस भक्त होत मोहे अतिशय प्रिय ,
मम होत परायण जीत हियो