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बतियाता रहता हूँ उसी से / शलभ श्रीराम सिंह

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उसकी समझ में
नहीं आती मेरी बातें
फिर भी
उसी से बतियाता रहता हूँ
दिन-रात।

बतियाता रहता हूँ
शायद पकड़ में आ जाए उसकी
मेरी कोई बात,
उसकी कोई बात
समझ में आ जाए मेरी।

उसकी हँसी और उसकी उदासी
यही नहीं होंगी उस दिन
जिस दिन
समझ लेंगे हम
एक-दूसरे की बातें।


रचनाकाल : 1992, मसोढ़ा