प्रथम अंक / भाग 5 / रामधारी सिंह "दिनकर"
सह्जन्या
तेज-तेज सांसे चलती है, धड़क रही छाती है,
चित्रे ! तू इस तरह कहाँ से थकी-थकी आती है?
चित्रलेखा
आज सांझ से सखी उर्वशी को न रंच भी कल थी
नृप पुरुरवा से मिलने को वह अत्यंत विकल थी
कहती थी,”यदि आज कांत का अंक नही पाउँगी,
तो शरीर को छोड- पवन मॅ निश्चय मिल जाउँगी.”
“रोक चुकी तुम बहुत, अधिक अब और न रोक सकोगी
दिव मॅ रखकर मुझे नही जीवित अवलोक सकोगी.
भला चाह्ती हो मेरा तो वसुधा पर जाने दो
मेरे हित जो भी संचित हो भाग्य, मुझे पाने दो.
नही दीखती कही शांति मुझको अब देव निलय मॅ
बुला रहा मेरा सुख मुझ को प्रिय के बाहु-वलय मॅ.
स्वर्ग-स्वर्ग मत कहो ,स्वर्ग मॅ सब सौभाग्य भरा है,
पर, इस महास्वर्ग मॅ मेरे हित क्या आज धरा है?
स्वर्ग स्वप्न का जाल, सत्य का स्पर्श खोजती हूँ मै,
नही कल्पना का सुख, जीवित हर्ष खोजती हूँ मै.
तृप्ति नही अब मुझे साँस भर-भर सौरभ पीने से
ऊब गई हूँ दबा कंठ, नीरव रह कर जीने से.
लगता है, कोई शोणित मॅ स्वर्ण तरी खेता है
रह-रह मुझे उठा अपनी बाहॉ मॅ भर लेता है
कौन देवता है, जो यॉ छिप-छिप कर खेल रहा है,
प्राणॉ के रस की अरूप माधुरी उड़ेल रहा है?
जिस्का ध्यान प्राण मॅ मेरे यह प्रमोद भरता है,
उससे बहुत निकट होकर जीने को जी करता है.
यही चाह्ती हूँ कि गन्ध को तन हो ,उसे धरु मै,
उड़ते हुए अदेह स्वप्न को बाहॉ मॅ जकड़ू मै,
निराकार मन की उमंग को रुप कही दे पाऊँ,
फूटे तन की आग और मै उसमॅ तैर नहाऊँ.
कहती हूँ, इसलिये चित्रलेखे! मत देर लगाओ,
जैसे भी हो मुझे आज प्रिय के समीप पहुंचाओ.”
सह्जन्या
तो तुमने क्या किया?
चित्रलेखा
अरी, क्या और भला करती मै?
कैसे नही सखी के दुःसंकल्पॉ से डरती मै ?
आज सांझ को ही उसको फूलॉ से खूब सजाकर,
सुरपुर से बाहर ले आई ,सब्की आंख बचाकर,
उतर गई धीरे-धीरे चुपके ,फिर मर्त्य भुवन मॅ,
और छोड़ आई हूँ उसको राजा के उपवन मॅ
रम्भा
छोड़ दिया निःसंग उसे प्रियतम से बिना मिलाये?
चित्रलेखा
युक्ति ठीक है वही, समय जिसको उपयुक्त बताए.
अभी वहाँ आई थी राजा से मिलने को रानी
हमॅ देख लेती वे तो फिर बढती वृथा कहानी
नृप को पर है विदित, उर्वशी उपवन मॅ आई है,
अतः मिलन की उत्कंठा उनके मन मॅ छाई है.
रानी ज्यॉ ही गई, प्रकट उर्वशी कुंज से होगी,
फिर तो मुक्त मिलेंगे निर्जन मॅ विरहिणी-वियोगी.
रम्भा
अरी, एक रानी भी है राजा को?
चित्रलेखा
तो क्या भय है?
एक घाट पर किस राजा का रहता बन्धा प्रणय है?
नया बोध श्रीमंत प्रेम का करते ही रहते है,
नित्य नई सुन्दरताऑ पर मरते ही रहते है.
सहधर्मिणी गेह मॅ आती कुल-पोषण करने को,
पति को नही नित्य नूतन मादकता से भरने को.
किंतु, पुरुष चाह्ता भींगना मधु के नए क्षणॉ से,
नित्य चूमना एक पुष्प अभिसिंचित ओस कणॉ से.
जितने भी हॉ कुसुम, कौन उर्वशी–सदृश, पर, होगा?
उसे छोड अन्यत्र रमॅ, दृगहीन कौन नर होगा?
कुल की हो जो भी, रानी उर्वशी हृदय की होगी?
एक मात्र स्वामिनी नृपति के पूर्ण प्रणय की होगी.
सहजन्या
तब तो अपर स्वर्ग मॅ ही तू उसको धर आई है,
नन्दन वन को लूट ज्योति से भू को भर आई है.
मेनका
अपर स्वर्ग तुम कहो, किंतु ,मेरे मन मॅ संशय है.
कौन जानता है, राजा का कितना तरल हृदय है?
सखी उर्वशी की पीडा, माना तुम जान चुकी हो ;
चित्रे !पर, क्या इसी भांति ,नृप को पह्चान चुकी हो?
तड़प रही उर्वशी स्वर्ग तज कर जिसको वरने को,
प्रस्तुत है वह भी क्या उसका आलिंगन करने को ?
दहक उठी जो आग चित्रलेखे ! अमर्त्य के मन मॅ,
देखा कभी धुँआ भी उसका तूने मर्त्य भुवन मॅ?
चित्रलेखा
धुँआ नही, ज्वाला देखी है, ताप उभयदिक सम है,
जो अमर्त्य की आग ,मर्त्य की जलन न उससे कम है.
सुखामोद से उदासीन जैसे उर्वशी विकल है
उसी भांति दिन-रात कभी राजा को रंच न कल है .
छिपकर सुना एक दिन कहते उन्हॅ स्वयं निज मन से,
”वृथा लौत आया उस दिन उज्ज्वल मेघॉ के वन से,
नीति-भीति, संकोच-शील का ध्यान न टुक लाना था,
मुझे स्रस्त उस सपने के पीछे-पीछे जाना था.
एक मूर्ति मॅ सिमट गई किस भांति सिद्धियाँ सारी?
कब था ज्ञात मुझे , इतनी सुन्दर होती है नारी?
लाल-लाल वे चरण कमल से, कुंकुम से, जावक से
तन की रक्तिम कांति शुद्ध ,ज्यॉ धुली हुई पावक से.
जग भर की माधुरी अरुण अधरॉ मॅ धरी हुई सी.
आंखॉ मॅ वारुणी रंग निद्रा कुछ भरी हुई सी
तन प्रकांति मुकुलित अनंत ऊषाऑ की लाली-सी,
नूतनता सम्पूर्ण जगत की संचित हरियाली सी.
पग पड़्ते ही फूट पड़े विद्रुम-प्रवाल धूलॉ से
जहाँ खड़ी हो, वही व्योम भर जाये श्वेत फूलॉ से.
दर्पण, जिसमॅ प्रकृति रूप अपना देखा करती है,
वह सौन्दर्य, कला जिस्का सपना देखा करती है.
नही, उर्वशी नारि नही, आभा है निखिल भुवन की;
रूप नही, निष्कलुष कल्पना है स्रष्टा के मन की”
फिर बोले- “जाने कब तक परितोष प्राण पायेंगे
अंतराग्नि मॅ पड़े स्वप्न कब तक जलते जायेंगे?
जाने, कब कल्पना रूप धारण कर अंक भरेगी?
कल्पलता, जानॅ, आलिंगन से कब तपन हरेगी?
आह! कौन मन पर यॉ मढ सोने का तार रही है?
मेरे चारॉ ओर कौन चान्दनी पुकार रही है?
नक्षत्रॉ के बीज प्राण के नभ मॅ बोने वाली !
ओ रसमयी वेदनाऑ मॅ मुझे डुबोने वाली !
स्वर्गलोक की सुधे ! अरी, ओ, आभा नन्दनवन की!
किस प्रकार तुझ तक पहुंचाऊँ पीड़ा मै निज मन की ?
स्यात अभी तप ही अपूर्ण है,न तो भेद अम्बर को
छुआ नही क्यॉ मेरी आहॉ ने तेरे अंतर को?
पर, मै नही निराश, सृष्टि मॅ व्याप्त एक ही मन है,
और शब्दगुण गगन रोकता रव का नही गमन है.
निश्चय, विरहाकुल पुकार से कभी स्वर्ग डोलेगा;
और नीलिमापुंज हमारा मिलन मार्ग खोलेगा.
मेरे अश्रु ओस बनकर कल्पद्रुम पर छाएँगे,
पारिजात वन के प्रसून आहॉ से कुम्हलाएँगे.
मेरी मर्म पुकार् मोहिनी वृथा नही जायेगी,
आज न तो कल तुझे इन्द्रपुर मॅ वह तड़पाएगी.
और वही लाएगी नीचे तुझे उतार गगन से
या फिर देह छोड़ मै ही मिलने आऊंगा मन से.”
सह्जन्या
यह कराल वेदना पुरुष की ! मानव प्रणय-व्रती की !
चित्रलेखा
यही समुद्वेलन नर का शोभा है रूपमती की.
सुन्दर थी उर्वशी ! आज वह और अधिक सुन्दर है.
राका की जय तभी, लहर उठता जब रत्नाकर है.
सह्जन्या
महाराज पर बीत रहा इतना कुछ? तब तो रानी
समझ गई होंगी, मन-ही-मन, सारी गूढ कहानी.
चित्रलेखा
कैसे समझे नही ! प्रेम छिपता है कभी छिपाए?
कुल-वामा क्या करे, किंतु, जब यह विपत्ति आ जाए?
प्रिय की प्रीति हेतु रानी कोई व्रत साध रही है,
सुना, आजकल चन्द्र-देवता को आराध रही है.
सह्जन्या
तब तो चन्द्रानना-चन्द्र मॅ अच्छी होड़ पड़ी है.
मेनका
यह भी है कुछ ध्यान, रात अब केवल चार घड़ी है.
रम्भा
अच्छ, कोई तान उठाओ, उड़ो मुक्त अम्बर मॅ,
भू को नभ के साथ मिलाए चलो गीत के स्वर मॅ.
समवेत गान
बरस रही मधु-धार गगन से, पी ले यह रस रे !
उमड़ रही जो विभा, उसे बढ बाहॉ मॅ कस रे !
इस अनंत रसमय सागर का अतल और मधुमय है,
डूब, डूब, फेनिल तरंग पर मान नही बस रे !
दिन की जैसी कठिन धूप, वैसा ही तिमिर कुटिल है,
रच रे, रच झिलमिल प्रकाश, चाँदनियॉ मॅ बस रे !
[सब गाते-गाते उड़ कर आकश मॅ विलीन हो जाती है]