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दुख के जंगल में फिरते हैं / जावेद अख़्तर
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रचनाकार: जावेद अख़्तर
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दुख के जंगल में फिरते हैं कब से मारे मारे लोग
जो होता है सह लेते हैं कैसे हैं बेचारे लोग
जीवन भर हमने खेल यही होते देखा
धीरे धीरे जीती दुनिया धीरे धीरे हारे लोग
इस नगरी में क्यों मिलती है रोटी सपनों के बदले
जिनकी नगरी है वो जाने हम ठहरे बंजारे लोग