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दूर बैठा हूँ हर हक़ीक़त से / शेरजंग गर्ग

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दूर बैठा हूँ हर हक़ीक़त से।
तुमको देखा नहीं है मुद्दत से।

क्या सबब है मेरी उदासी का,
सोचते काश, तुम ये फ़ुर्सत
 से।

पत्थरों की हसीन बस्ती में,
कुछ न बनता है यों शिकायत से।

अब मुहब्बत की राह छोड़, ऐ दिल,
आदमी तुल
 रहा है दौलत से।

सह सकूँ मैं सभी तुम्हारे ग़म,
ज़िन्दगी-भर ख़ुशी से, हसरत से।