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दूर बैठा हूँ हर हक़ीक़त से / शेरजंग गर्ग
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द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:31, 18 सितम्बर 2010 का अवतरण
दूर बैठा हूँ हर हक़ीक़त से।
तुमको देखा नहीं है मुद्दत से।
क्या सबब है मेरी उदासी का,
सोचते काश, तुम ये फ़ुर्सत से।
पत्थरों की हसीन बस्ती में,
कुछ न बनता है यों शिकायत से।
अब मुहब्बत की राह छोड़, ऐ दिल,
आदमी तुल रहा है दौलत से।
सह सकूँ मैं सभी तुम्हारे ग़म,
ज़िन्दगी-भर ख़ुशी से, हसरत से।