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वही-वही / केदारनाथ अग्रवाल

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वही-वही
पीर और पानी की,
प्राकृत कुरबानी की-
नेह और नाते की नदिया,
गाँव के किनारे से-
घर-घर के द्वारे से-
निचुड़-निचुड़
बहती है,
लरज-गरज सहती है,
जग-बीती कहती है।

रचनाकाल: ०२-१२--१९७८