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उधर चाँदनी, इधर अमा है / रामगोपाल 'रुद्र'
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उधर चाँदनी, इधर अमा है–यह भी कैसी रात!
सपना है, जो सत्य बना था,
ज्योति बना, जो तिमिर घन था;
आँखों में शशि की संध्या है, पाँखों में रवि-प्रात!
सीप डूबते मिलन-कूल पर,
मोती उगते विरह-धूल पर;
सागर में लू, सागर-तट पर अस्रधार बरसात!
अन्त: पुर में कुसुमसमय है,
दृश्यद्वार पर सीतप्रलय है;
फूले प्राण-मघूलक मेरे, जड़ीभूत जलजात!