भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रामप्रेम ही सार है / तुलसीदास/ पृष्ठ 4
Kavita Kosh से
रामप्रेम ही सार है-4
(43)
कामु-से रूप, प्रताप दिनेसु-से , सोमु-से सील, गनेसु-से माने।
हरिचंदु-से साँचे, बड़े बिधि-से, मघवा-से महीप बिषै-सुख-साने।।
सुक-से मुनि, सारद-से बकता, चिरजीवन लोमस तें अधिकाने।
ऐसे भए तौ कहा ‘तुलसी’ , जो पै राजिवलोचन रामु न जाने।।
(44)
झूमत द्वार अनेक मतंग जँजीर-जरे, मद अंबु चुचाते।।
तीखे तुरंग मनोगति-चंचल , पौनके गौनहु तें बढ़ि जाते।।
भीतर चंद्रमुखी अवलोकति, बाहर भूप खरे न समाते।
ऐसे भए तौ कहा, तुलसी, जो पै जानकीनाथके रंग न राते।।