भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अध्याय ११ / भाग १ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति

Kavita Kosh से
सम्यक (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 05:26, 17 अक्टूबर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मृदुल कीर्ति |संग्रह=श्रीमदभगवदगीता / मृदुल की…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अथ एकादशोअध्याय

अर्जुन उवाच
अति गोप परम अध्यात्म ज्ञान ,
जेहि माधव ने उपदेश करयौ .
अति दिव्य अनुग्रह केशव कौ,
अज्ञान मेरौ अथ शेष हरयौ

शुभ शुभ्र कमल नयनं कृष्णा,
संहार सृजन सब प्राणिन कौ.
अथ तोरे ही श्री मुख माहीं सुन्यौ
कछु चाह नहीं अब जाननि कौ

परब्रह्म प्रभो तुम आपुनि कौ,
जस कहवती हौ , तुम तौ तस हौ.
पुरुषोत्तम हे ! ऐश्वर्य तेरौ,
में जानिबु चाहत हूँ जस हो

अविनाशी माधव रूप तेरौ ,
मैं जानि सकूं यहि संशय है,
अब रूप विराट की चाह घनी,
योगेश! मेरौ अस आश्य है

श्री भगवानुवाच.
बहु विविधा वर्ण सरूपन कौ
और दिव्य अलौकिक रूपन कौ.
तू देखि सहस्त्र शतं छवि कौ.
हे पार्थ! तू रूप अनूपन कौ

वसु आठ तो ग्यारह रुद्रन कौ,
आदित्य के बारह पुत्रन कौ,
उन्चास मरुत, लखे दृश्य विरल.,
संभव कब होत कोऊ जन कौ?

हे पार्थ ! मोरी यही देह में ही ,
जग सगरौ चराचर वास करै,
यहि देह में चाहें सों देखौ,
मन चाहो सरूप जो आस करै

इन नयनन सों मोहे देखे कहीं,
कोऊ किंचित समरथ होत नहीं..
सों दिव्य नयन तोहे देत यहीं ,
मोरी यौगिक शक्तिन देख महीं

संजय उवाच
संजय धृतराष्ट्र सों बोल रहे ,
श्री कृष्ण महा योगेश्वर नें,
निज दिव्य सरूप दिखायौ है.
अर्जुन कौ श्री धरनी-धर ने

मुख नेत्र अनेक विचित्र बहु,
बहु भाषण दैविक शस्त्रन कौ,
गिरधारी उठाय रहे कर सों ,
अस रूप दिखावत अर्जुन कौ

बहु माल अलौकिक धारे हिया ,
अनुलेप सुवासित दिव्य कियौ .
आद्यंत विहीन विराट महेश ,
ने रूप अरूप तौ भव्य कियौ

नभ माहीं सूर्य सहस्त्र रहें ,
तोऊ पार ना पावैं ज्योतिन कौ,
अस ज्योति सों ज्योतित श्री मुख कौ ,
अर्जुन देखति तेहि जगपति कौ

बहु भांति विभक्त विविध जग कौ,
एक ठाँव में पार्थ ! लखाय रह्यो.
उन देवों के देव की देह में तौ ,
ब्रह्माण्ड ही सगरौ समाय रह्यो

रह्यो ठाड़ो ठ्ग्यो सों , धनंजय तौ ,
रोमांचित हर्ष भयो तन में.
कर जोड़ के श्रद्धा भक्तिन सों,
कियौ सीस नमन पुलकित मन में

अर्जुन उवाच
सगरे देवन, ऋषियन , ईशन
और दिव्य अनेकन सर्पन कौ,
अवलोकत, पद्म आसीन हैं जो,
ब्रह्मा और सगरे देवन कौ

मुख नेत्र अनेकन हाथ बहु,
ना आदि ना मध्य ना अंत दिखै,
विश्वेश्वर विश्व सरूप अहे.
को समरथ जो कि अनंत लखै

तोरौ चक्र , गदान किरीट सों युक्त
प्रकाशन तेज कौ पुंज घनयो.
द्युतिमान दिवाकर पावक सों,
अस तोरो सलोनो सरूप बनयो

परमेश परम आधार तू ही,
तू ही जाननि जोग सनातन है.
अविनाशी धर्म कौ रक्षक है.
अक्षर शुचि सत्य पुरातन है

ना आदि ना अंत ना मध्य कहहूँ ,
तव बाहु अनंत समर्थ महा,
रवि-चन्द्र नयन ज्योतित आनन ,
स्व तेज सों ज्योतित विश्व अहा!

यहि स्वर्ग धरा के बीच गगन ,
और सगरी दिशा वासुदेव मयी,
लखि उग्र अलौकिक रूप तेरौ ,
तिहूँ लोक व्यथित भयभीत भयी

तुझ माहीं ये देव प्रवेश करैं,
कर जोड़ी के भय सों नाम जपें.
गण सिद्ध महर्षि के, स्वस्ति हो,
अथ स्रोत सों तेरौ ही जाप करैं

सुर, यक्ष, सिद्ध गण गन्धर्वन ,
वसु आठ आदित्यं रुद्रन कौ.
विस्मित भये आप कौ देखि रहे,
अश्रवनि मरुदगण पितरन कौ

बहु नेत्र, उदर, बहु, पद, जंघा.
बहु हाथ मुखन भय भीत लगै.
विकराल विशाल जबाड़न देखि के,
लोक विकल, भयभीत लगै

नभ लौं विस्तारित मुख दमकत.
दैदीप्य मान इन नयनन सों ,
भयभीत मोरो अंतर्मन है,
मोरी धीरज शांति गयी मन सों

विकराल जबाड़न ऐसों लगै
जस आग प्रलय की धधकत हो.
मुख देखि दिशा भ्रम होवत सों,
देवेश प्रसन्न मुखाकृत हो