"अध्याय ४ / भाग १ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति" के अवतरणों में अंतर
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चतुर्थो अध्याय | चतुर्थो अध्याय | ||
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+ | इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्। | ||
+ | विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्॥४-१॥ | ||
+ | </span> | ||
अति आदि कल्प कौ योग अमर, | अति आदि कल्प कौ योग अमर, | ||
श्री कृष्ण कहयो, यहि सूरज सों; | श्री कृष्ण कहयो, यहि सूरज सों; | ||
फिर सूरज आपुनि सुत मनु सों, | फिर सूरज आपुनि सुत मनु सों, | ||
मनु इक्षवाकु पुनि सुत निज सों | मनु इक्षवाकु पुनि सुत निज सों | ||
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+ | एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः। | ||
+ | स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप॥४-२॥ | ||
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यहि रीति सों योग कौ मर्म महा, | यहि रीति सों योग कौ मर्म महा, | ||
राजर्षिंन कौ विदित भयौ. | राजर्षिंन कौ विदित भयौ. | ||
बहु काल सों योग यहि अर्जुन, | बहु काल सों योग यहि अर्जुन, | ||
इह लोक सों लोप-विलुप्त भयौ | इह लोक सों लोप-विलुप्त भयौ | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः। | ||
+ | भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्॥४-३॥ | ||
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यहि मर्म पुरातन, योग महा, | यहि मर्म पुरातन, योग महा, | ||
हे अर्जुन! मैं तोसों कहिबौ. | हे अर्जुन! मैं तोसों कहिबौ. | ||
तू मेरौ सखा, प्रिय भक्त महा, | तू मेरौ सखा, प्रिय भक्त महा, | ||
निज आपुनि बानी सों कहिबौ | निज आपुनि बानी सों कहिबौ | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः। | ||
+ | कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति॥४-४॥ | ||
+ | </span> | ||
अर्जुन उवाच | अर्जुन उवाच | ||
जन्में है आप अबहीं भगवन , | जन्में है आप अबहीं भगवन , | ||
पंक्ति 26: | पंक्ति 40: | ||
सों कैसे समझूँ हे माधव! | सों कैसे समझूँ हे माधव! | ||
यहि योग तौ आदि सनातन है | यहि योग तौ आदि सनातन है | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन। | ||
+ | तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप॥४-५॥ | ||
+ | </span> | ||
श्री कृष्ण उवाच | श्री कृष्ण उवाच | ||
सुनि अर्जुन! तोरे और मोरे, | सुनि अर्जुन! तोरे और मोरे, | ||
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सबहीं तू जानाति नाहीं पार्थ, | सबहीं तू जानाति नाहीं पार्थ, | ||
और मोसों कछु अज्ञात नहीं | और मोसों कछु अज्ञात नहीं | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्। | ||
+ | प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया॥४-६॥ | ||
+ | </span> | ||
अविनासी सरूप अजन्मा हूँ, | अविनासी सरूप अजन्मा हूँ, | ||
सब प्रानिन के हित ब्रह्मा हूँ, | सब प्रानिन के हित ब्रह्मा हूँ, | ||
आपुनि प्रकृति वश मैं करिकै, | आपुनि प्रकृति वश मैं करिकै, | ||
माया के योग सों जन्मा हूँ | माया के योग सों जन्मा हूँ | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। | ||
+ | अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥४-७॥ | ||
+ | </span> | ||
जब धर्म धरा पे नसावत है, | जब धर्म धरा पे नसावत है, | ||
अधर्महूँ पाँव पसावत है, | अधर्महूँ पाँव पसावत है, | ||
तब धरनी-धर तन धारे धरा पर , | तब धरनी-धर तन धारे धरा पर , | ||
धर्म को आनि बचावत हैं | धर्म को आनि बचावत हैं | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। | ||
+ | धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥४-८॥ | ||
+ | </span> | ||
फिर साधुन के उद्धारण कौ, | फिर साधुन के उद्धारण कौ, | ||
और दुष्ट दलन संहारण कौ, | और दुष्ट दलन संहारण कौ, | ||
युग मांहीं धरम प्रसारण कौ. | युग मांहीं धरम प्रसारण कौ. | ||
प्रगटत हूँ सृष्टि संवारण कौ | प्रगटत हूँ सृष्टि संवारण कौ | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः। | ||
+ | त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन॥४-९॥ | ||
+ | </span> | ||
हे अर्जुन! मोरे जनम करम, | हे अर्जुन! मोरे जनम करम, | ||
तौ दिव्य, जो अथ जाने कोऊ . | तौ दिव्य, जो अथ जाने कोऊ . | ||
तिन जनम -मरण मिटी जाति सबहिं, | तिन जनम -मरण मिटी जाति सबहिं, | ||
मोहे जानि, के मोहे पावै सोऊ | मोहे जानि, के मोहे पावै सोऊ | ||
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+ | वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः। | ||
+ | बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः॥४-१०॥ | ||
+ | </span> | ||
भय राग व् क्रोध विहीन भये, | भय राग व् क्रोध विहीन भये, | ||
शरणागत , लीन अनूप भये. | शरणागत , लीन अनूप भये. | ||
तप भक्ति, ज्ञान पुनीत जना, | तप भक्ति, ज्ञान पुनीत जना, | ||
मोहे पाय के मोरे सरूप भये | मोहे पाय के मोरे सरूप भये | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। | ||
+ | मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥४-११॥ | ||
+ | </span> | ||
हे अर्जुन! मोरे सरूपहीं कौ, | हे अर्जुन! मोरे सरूपहीं कौ, | ||
जो जैसो भजे, मैं तैसे भजूं , | जो जैसो भजे, मैं तैसे भजूं , | ||
जेहि ज्ञानी मर्म को जानि भये , | जेहि ज्ञानी मर्म को जानि भये , | ||
मग मोरे चलें , तिन नाहीं तजूं | मग मोरे चलें , तिन नाहीं तजूं | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः। | ||
+ | क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा॥४-१२॥ | ||
+ | </span> | ||
इहि लोक मांहीं मानुष करमन, | इहि लोक मांहीं मानुष करमन, | ||
फल हेतु पूजते देवन कौ, | फल हेतु पूजते देवन कौ, | ||
जन पाय रहे रिद्धि-सिद्धि , | जन पाय रहे रिद्धि-सिद्धि , | ||
सों, वेग सों पूजत देवन कौ | सों, वेग सों पूजत देवन कौ | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः। | ||
+ | तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्॥४-१३॥ | ||
+ | </span> | ||
सब ब्रह्मण ,क्षत्रिय, वैश्य ,शूद्र | सब ब्रह्मण ,क्षत्रिय, वैश्य ,शूद्र | ||
गुण-कर्म विभाजक करता मैं, | गुण-कर्म विभाजक करता मैं, | ||
जग रच्यो रचयिता अविनाशी, | जग रच्यो रचयिता अविनाशी, | ||
कर्ता हूँ , तथापि अकर्ता मैं | कर्ता हूँ , तथापि अकर्ता मैं | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा। | ||
+ | इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते॥४-१४॥ | ||
+ | </span> | ||
बिनु स्पर्हा फल-करमन में | बिनु स्पर्हा फल-करमन में | ||
फल कर्म मोहे लपटात नहीं, | फल कर्म मोहे लपटात नहीं, | ||
यहि भांति तत्व सों जानि मोहे | यहि भांति तत्व सों जानि मोहे | ||
वे करमन मांहीं बंधात नहीं | वे करमन मांहीं बंधात नहीं | ||
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+ | एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः। | ||
+ | कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्॥४-१५॥ | ||
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जिन पूर्व जनान , मुमुक्ष भये | जिन पूर्व जनान , मुमुक्ष भये | ||
तिन ऐसो कर्म सदा ही कियौ, | तिन ऐसो कर्म सदा ही कियौ, | ||
इन पुरखन के अनुसार करम, | इन पुरखन के अनुसार करम, | ||
हे अर्जुन! सत्या प्रथा करियौ | हे अर्जुन! सत्या प्रथा करियौ | ||
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+ | किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः। | ||
+ | तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥४-१६॥ | ||
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सुनि कर्म-अकर्म की परिभाषा, | सुनि कर्म-अकर्म की परिभाषा, | ||
ज्ञानिहूँ यहि विषय विमोहित हैं, | ज्ञानिहूँ यहि विषय विमोहित हैं, | ||
तस कर्म को सत्व कहूं, तोसों, | तस कर्म को सत्व कहूं, तोसों, | ||
भव् बांध कटे तुम्हारो हित है | भव् बांध कटे तुम्हारो हित है | ||
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+ | कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः। | ||
+ | अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः॥४-१७॥ | ||
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सुनि कर्म-अकर्म कौ रूप यथा , | सुनि कर्म-अकर्म कौ रूप यथा , | ||
विकर्म को बोध धनञ्जय हो, | विकर्म को बोध धनञ्जय हो, | ||
गति करमन की अति वक्र गहन, | गति करमन की अति वक्र गहन, | ||
तेरौ करम-मरम सों परिचय हो | तेरौ करम-मरम सों परिचय हो | ||
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+ | कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः। | ||
+ | स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्॥४-१८॥ | ||
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जिन कर्म कियौ पर कर्ता कौ, | जिन कर्म कियौ पर कर्ता कौ, | ||
नाहीं भाव धरै, सों अकर्ता है. | नाहीं भाव धरै, सों अकर्ता है. | ||
तिन मानुष उत्तम ज्ञानिन में, | तिन मानुष उत्तम ज्ञानिन में, | ||
वही योगी करम कौ कर्ता है | वही योगी करम कौ कर्ता है | ||
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+ | यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः। | ||
+ | ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः॥४-१९॥ | ||
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बिनु चाह बिनु संकल्पन के, | बिनु चाह बिनु संकल्पन के, | ||
कारज होवत हैं , जन जेहि के, | कारज होवत हैं , जन जेहि के, | ||
ज्ञानी अतिशय सगरे ही करम, | ज्ञानी अतिशय सगरे ही करम, | ||
ग्यानानल दग्ध भये तेहि के | ग्यानानल दग्ध भये तेहि के | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः। | ||
+ | कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः॥४-२०॥ | ||
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जन ऐसो ब्रह्महिं तृप्त रहे, | जन ऐसो ब्रह्महिं तृप्त रहे, | ||
कर्तापन कौ अभिमान नहीं, | कर्तापन कौ अभिमान नहीं, | ||
करै कर्म अकर्ता भाव हिया, | करै कर्म अकर्ता भाव हिया, | ||
कर्तापन कौ कछु भान नहीं. | कर्तापन कौ कछु भान नहीं. | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः। | ||
+ | शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्॥४-२१॥ | ||
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जिन चित्त, देह कौ जीत लियो, | जिन चित्त, देह कौ जीत लियो, | ||
और त्याग दियो सब भोगन कौ. | और त्याग दियो सब भोगन कौ. |
11:00, 7 जुलाई 2015 के समय का अवतरण
चतुर्थो अध्याय
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्॥४-१॥
अति आदि कल्प कौ योग अमर,
श्री कृष्ण कहयो, यहि सूरज सों;
फिर सूरज आपुनि सुत मनु सों,
मनु इक्षवाकु पुनि सुत निज सों
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप॥४-२॥
यहि रीति सों योग कौ मर्म महा,
राजर्षिंन कौ विदित भयौ.
बहु काल सों योग यहि अर्जुन,
इह लोक सों लोप-विलुप्त भयौ
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्॥४-३॥
यहि मर्म पुरातन, योग महा,
हे अर्जुन! मैं तोसों कहिबौ.
तू मेरौ सखा, प्रिय भक्त महा,
निज आपुनि बानी सों कहिबौ
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति॥४-४॥
अर्जुन उवाच
जन्में है आप अबहीं भगवन ,
और सूर्य को जन्म पुरातन है,
सों कैसे समझूँ हे माधव!
यहि योग तौ आदि सनातन है
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप॥४-५॥
श्री कृष्ण उवाच
सुनि अर्जुन! तोरे और मोरे,
बहु जन्म भये पर ज्ञात नहीं.
सबहीं तू जानाति नाहीं पार्थ,
और मोसों कछु अज्ञात नहीं
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया॥४-६॥
अविनासी सरूप अजन्मा हूँ,
सब प्रानिन के हित ब्रह्मा हूँ,
आपुनि प्रकृति वश मैं करिकै,
माया के योग सों जन्मा हूँ
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥४-७॥
जब धर्म धरा पे नसावत है,
अधर्महूँ पाँव पसावत है,
तब धरनी-धर तन धारे धरा पर ,
धर्म को आनि बचावत हैं
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥४-८॥
फिर साधुन के उद्धारण कौ,
और दुष्ट दलन संहारण कौ,
युग मांहीं धरम प्रसारण कौ.
प्रगटत हूँ सृष्टि संवारण कौ
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन॥४-९॥
हे अर्जुन! मोरे जनम करम,
तौ दिव्य, जो अथ जाने कोऊ .
तिन जनम -मरण मिटी जाति सबहिं,
मोहे जानि, के मोहे पावै सोऊ
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः॥४-१०॥
भय राग व् क्रोध विहीन भये,
शरणागत , लीन अनूप भये.
तप भक्ति, ज्ञान पुनीत जना,
मोहे पाय के मोरे सरूप भये
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥४-११॥
हे अर्जुन! मोरे सरूपहीं कौ,
जो जैसो भजे, मैं तैसे भजूं ,
जेहि ज्ञानी मर्म को जानि भये ,
मग मोरे चलें , तिन नाहीं तजूं
काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा॥४-१२॥
इहि लोक मांहीं मानुष करमन,
फल हेतु पूजते देवन कौ,
जन पाय रहे रिद्धि-सिद्धि ,
सों, वेग सों पूजत देवन कौ
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्॥४-१३॥
सब ब्रह्मण ,क्षत्रिय, वैश्य ,शूद्र
गुण-कर्म विभाजक करता मैं,
जग रच्यो रचयिता अविनाशी,
कर्ता हूँ , तथापि अकर्ता मैं
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते॥४-१४॥
बिनु स्पर्हा फल-करमन में
फल कर्म मोहे लपटात नहीं,
यहि भांति तत्व सों जानि मोहे
वे करमन मांहीं बंधात नहीं
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः।
कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्॥४-१५॥
जिन पूर्व जनान , मुमुक्ष भये
तिन ऐसो कर्म सदा ही कियौ,
इन पुरखन के अनुसार करम,
हे अर्जुन! सत्या प्रथा करियौ
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥४-१६॥
सुनि कर्म-अकर्म की परिभाषा,
ज्ञानिहूँ यहि विषय विमोहित हैं,
तस कर्म को सत्व कहूं, तोसों,
भव् बांध कटे तुम्हारो हित है
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः॥४-१७॥
सुनि कर्म-अकर्म कौ रूप यथा ,
विकर्म को बोध धनञ्जय हो,
गति करमन की अति वक्र गहन,
तेरौ करम-मरम सों परिचय हो
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्॥४-१८॥
जिन कर्म कियौ पर कर्ता कौ,
नाहीं भाव धरै, सों अकर्ता है.
तिन मानुष उत्तम ज्ञानिन में,
वही योगी करम कौ कर्ता है
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः॥४-१९॥
बिनु चाह बिनु संकल्पन के,
कारज होवत हैं , जन जेहि के,
ज्ञानी अतिशय सगरे ही करम,
ग्यानानल दग्ध भये तेहि के
त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः॥४-२०॥
जन ऐसो ब्रह्महिं तृप्त रहे,
कर्तापन कौ अभिमान नहीं,
करै कर्म अकर्ता भाव हिया,
कर्तापन कौ कछु भान नहीं.
निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्॥४-२१॥
जिन चित्त, देह कौ जीत लियो,
और त्याग दियो सब भोगन कौ.
अस चाह विहीन जना तन सों,
करी कर्म बंधात न पापन सों