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अब किसे बनवास दोगे / अध्याय 4 / भाग 1 / शैलेश ज़ैदी

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लोग कहते हैं कि विधाता चुनता है
अपनी इच्छानुरूप आदमी को
और लाद देता है उस पर
दुःख- सुख की गठरी,
जिसे चुपचाप ढोने की प्रक्रिया
बन जाती है आदमी की नियति.
और इस नियति पर
नहीं होता आदमी का कोई नियन्त्रण
लोग क्यों नहीं सोचते
कि आदमी के हर निर्णय के साथ
जुड़ा है एक इतिहास
और यह इतिहास करता है रेखांकित
आदमी का आदमी से जुड़ना,
जुड़कर अलग होना,
अलग होकर जुड़े रहना.
इतिहास का यह रेखांकन
बताता है बैर और मैत्री के सन्दर्भ,
सन्दर्भों में निहित मूल्य,
मूल्यों के निर्माण में सक्रिय भूमिकाएँ.
इतिहास कभी थोपता नहीं आदमी पर
होनी अनहोनी घटनाएँ.
बल्कि छोड़ देता है उसे स्वतन्त्र
कुछ चुनने और न चुनने के बीच.
आदमी की यही स्वतन्त्रता
बनाती है उसकी पहचान
और यह पहचान ही करती है रूपायित
आदमी की नियति का ढाँचा.

लक्ष्मण के माथे पर खिंची रेखाएँ,
बनाना चाहती थीं
इतिहास का कुछ और नक्शा.
टूट रहे थे उस नक्शे में
पिता और पुत्र के सम्बन्ध,
टूट रही थीं पुरानी मान्यताएँ ,
आ रही थी विद्रोह की गन्ध.
पर वह, जिसे कहते हैं लोग
मर्यादा पुरूषोत्तम,
जिसे मानता हूँ मैं
तमाम संस्कृतियों का उद्गम,
जिसे पाया है मैंने
स्वार्थमुक्त , सुन्दर और अनुपम.
वह भी बना रहा था एक नक्शा.
और यह नक्शा
बहुत अलग था लक्ष्मण के नक्शे से.
इसमें राजगद्दी की जगह था एक वन- खण्ड ,
विद्रोह की जगह था प्रेम और भाई चारा .
यह नक्शा आम आदमी के लिए था एक सहारा
लक्ष्मण ने ध्यान से देखा था इस नक्शे को
इसकी एक- एक लकीर को
ढीली पड़ गयीं लक्ष्मण के माथे की तनी रेखाएँ
ढीली पड़ गयीं भिंची हुई मुट्ठियाँ
और मुट्ठियों में बन्द भावी योजनाएँ

कुछ चुनने और न चुनने के बीच खड़े लक्ष्मण
खोजने लगे अपनी पहचान
राम के नक्शे के भीतर
महल के एक तारीक झरोखे में खड़ी उर्मिला
देख रही थी लक्ष्मण की आँखों में
इतिहास का बदलाव
बन्धुत्त्व के स्नेहानुबन्ध का गहराता सागर
और उस सागर का बहाव
फैल गयी थीं उसकी आँखों के सामने
ढेर सारी तस्वीर