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"कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता / निदा फ़ाज़ली" के अवतरणों में अंतर
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+ | ये ऐसी आग है जिसमें धुआँ नहीं मिलता | ||
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− | + | जहाँ उमीद हो सकी वहाँ नहीं मिलता | |
− | + | कहाँ चिराग़ जलायें कहाँ गुलाब रखें | |
− | + | छतें तो मिलती हैं लेकिन मकाँ नहीं मिलता | |
− | + | ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं | |
− | + | ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलता | |
− | + | चिराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है | |
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− | + | ज़ुबाँ मिली है मगर हमज़ुबा नहीं मिलता | |
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− | + | जहाँ उम्मीद हो इस की वहाँ नहीं मिलता | |
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16:38, 8 फ़रवरी 2016 का अवतरण
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता
बुझा सका है भला कौन वक़्त के शोले
ये ऐसी आग है जिसमें धुआँ नहीं मिलता
तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो
जहाँ उमीद हो सकी वहाँ नहीं मिलता
कहाँ चिराग़ जलायें कहाँ गुलाब रखें
छतें तो मिलती हैं लेकिन मकाँ नहीं मिलता
ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं
ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलता
चिराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है
खुद अपने घर में ही घर का निशाँ नहीं मिलता
जिसे भी देखिये वो अपने आप में गुम है
ज़ुबाँ मिली है मगर हमज़ुबा नहीं मिलता
तेरे जहान में ऐसा नहीं कि प्यार न हो
जहाँ उम्मीद हो इस की वहाँ नहीं मिलता