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कभी न दिखेगा / लक्ष्मीकान्त मुकुल

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ताबड़तोड़ टकरा रहे थे
कुछ पत्थर
सामने बहती नदी की धर में
उठती लहरें
हिलकोरे लेती
चली आती झलांसें की ओर
खेत पट नहीं पाया था
पट गई फिर फसलें
बुढ़िया आंधी की आग में
उदास थे हम
कुम्हलाये हुए दूबों की तरह
सन-सन बह रही थी हवाएं
ठीक धरती के किनारों पर
उठे काले बनैले हाथी
चले आ रहे थे इधर ही
कोई घूर रहा था बादलों के बीच
मेमने का मासूम चेहरा
दहकता परास-वन
झवांता जा रहा था
कुएं की जगत की ओर बढ़ता हुआ
जहां कठघोड़वा खेलता नन्हका
खो जाता नानी की कहानियों में
बबुरंगों से बचते-बचते
नदी टेढ़ बांगुच हो जाती
गांव से सटी हुई
पफैल जायेगा गलियों में ठेहुना भर पानी
उब डूब होने लगेगा
पिफर मेरा घर-बार
दह जायेगी मां की पराती धुनें
छठ का फलसूप, कोपड़ फूटता बांस
फिर भी न दिखेगा तुम्हारी नींद में।