भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"कलम की खोली / कुमार विजय गुप्त" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार विजय गुप्त |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

11:03, 11 दिसम्बर 2013 के समय का अवतरण

यहीं पर कहीं गुम हो गयी है कलम की खोली

जेब के उपर यही तो एक दीख रही थी
कभी पहाडी के पीछे उभरते बाल अरुण की तरह
कभी तालाब पर खडी कमल कली की तरह
कभी दीवार फांदने की फिराक में किसी शरारती बच्चे की तरह
तो कभी दीखती थी
डूब रहे किसी आदमी के आवाज देते हाथ की तरह

बटन के उपर जब खेासी जाती जरा तिरछी
ते लगता मानो पर्दे की ओट लेकर झॉंक रही हो
केाई शोख लडकी

जैसे संसद के अंदर सत्ता
जैसे खोपडी के अंदर दिमाग
जैसे झूठ के अंदर कोई सच
खोली में महफूज थी कलम की नोक
और नोक में सुरक्षित विचार की धाराएँ
जैसे धरती के अंदर जल प्रबाह... आग लावा

खोली थी तो आराम फरमा रही थी
देह के भीतर देह
जैसे म्यान के अंदर कोई तलवार शानदार

खोली के भीतर दुबकी नहीं थी
केाई शुतुरमुर्गी संस्कृति
बल्कि इसी के सहारे जेब में खुंसी थी कलम
और आहिस्ता आहिस्ता आत्मसात कर रही थी
हृदय का संबेद
फेफडों का स्पंदन
देह की उष्मा ऊर्जा

खोली थी तो सीने पर सुशोभित था तगमा
तो आग्रह थे आभार थे और थे आकस्मिक संबंध

वह जबकि मात्र एक खोखली खोली थी
गुम गयी तो शेष कलम रह गयी
कितनी निसंग कितनी अकेली कैसी दर बदर
मानो ताज क्या गया
छिन गया तख्त जाता रहा आश्रय
कितना निरीह हो गया प्रतापी सम्राट

हाँ तो बंधुओ
यदि आपमें से किन्हीं को मिल जाये खोली
तो निःसंकोच मॉंग ले जाइएगा
शेष कलम की आधी अधूरी देह दुनिया भी!