"कालजयी / बीज सर्ग / भाग १ / भवानीप्रसाद मिश्र" के अवतरणों में अंतर
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− | यह कथा व्यक्ति की नहीं, | + | यह कथा व्यक्ति की नहीं,<br> |
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− | यह स्नेह शांति | + | यह स्नेह शांति<br> |
− | सौंदर्य शौर्य की, धृति की है । | + | सौंदर्य शौर्य की, धृति की है ।<br> |
− | यह धारा संस्कृति की | + | यह धारा संस्कृति की <br> |
− | विशिष्ट अति वेगवान, | + | विशिष्ट अति वेगवान, <br> |
− | केवल भारत की धरती पर | + | केवल भारत की धरती पर <br> |
− | थी प्रवहमान । | + | थी प्रवहमान ।<br> |
− | इस महापुरुष ने | + | इस महापुरुष ने<br> |
− | इसे प्रवहित किया वहाँ - | + | इसे प्रवहित किया वहाँ -<br> |
− | कल्पनातीत था | + | कल्पनातीत था <br> |
− | इसका | + | इसका <br> |
− | कल-कल नाद जहाँ । | + | कल-कल नाद जहाँ । <br> |
− | यह धारा | + | यह धारा <br> |
− | हुई प्रवाहित | + | हुई प्रवाहित <br> |
− | ऐसे देशों में | + | ऐसे देशों में <br> |
− | ऐसे अगम्य | + | ऐसे अगम्य <br> |
− | ऐसे अलंघ्य | + | ऐसे अलंघ्य <br> |
− | परिवेशों में - | + | परिवेशों में - <br> |
− | जिनके आड़े | + | जिनके आड़े <br> |
− | ऊँचे गिरि-प्रान्तर | + | ऊँचे गिरि-प्रान्तर <br> |
− | सागर थे, | + | सागर थे, <br> |
− | जो स्वयं | + | जो स्वयं <br> |
− | सुसंस्कृत थे | + | सुसंस्कृत थे <br> |
− | प्राचीन उजागर थे ! | + | प्राचीन उजागर थे !<br> |
− | जिनको अपनी भाषा | + | जिनको अपनी भाषा<br> |
− | संस्कृति का | + | संस्कृति का<br> |
− | गौरव था; | + | गौरव था;<br> |
− | जो गंधमान थे | + | जो गंधमान थे <br> |
− | जिनका | + | जिनका <br> |
− | अपना सौरभ था ! | + | अपना सौरभ था ! <br> |
− | ऐसे देशों में | + | ऐसे देशों में <br> |
− | अपनी धार बहा देना, | + | अपनी धार बहा देना,<br> |
− | चाहे जितना | + | चाहे जितना<br> |
− | निश्छल हो | + | निश्छल हो <br> |
− | प्यार बहा देना- | + | प्यार बहा देना-<br> |
− | श्रद्धा निष्ठा | + | श्रद्धा निष्ठा <br> |
− | व्याकुलता शक्ति | + | व्याकुलता शक्ति<br> |
− | माँगता है; | + | माँगता है; <br> |
− | अविरोध | + | अविरोध <br> |
− | और आशा उत्कट, | + | और आशा उत्कट,<br> |
− | आत्यंतिक भक्ति | + | आत्यंतिक भक्ति <br> |
− | माँगता है ! | + | माँगता है ! <br> |
− | इस महाप्राण ने | + | इस महाप्राण ने <br> |
− | अपने में पहले विकास | + | अपने में पहले विकास <br> |
− | इनका करके | + | इनका करके<br> |
− | फिर धीरे-धीरे | + | फिर धीरे-धीरे<br> |
− | यह विशिष्टता | + | यह विशिष्टता<br> |
− | जन-जन के मन में भरके | + | जन-जन के मन में भरके<br> |
− | कर दिया प्रवाहित | + | कर दिया प्रवाहित<br> |
− | एक ओघ-सौंदर्य | + | एक ओघ-सौंदर्य<br> |
− | विचारों का ऐसा- | + | विचारों का ऐसा-<br> |
− | निःस्वार्थ-भाव, | + | निःस्वार्थ-भाव,<br> |
− | निष्ठापूर्वक, | + | निष्ठापूर्वक,<br> |
− | था हुआ नहीं | + | था हुआ नहीं <br> |
− | अब तक ऐसा ! | + | अब तक ऐसा !<br> |
− | पहुँचे हैं धर्म-प्रचारक | + | पहुँचे हैं धर्म-प्रचारक <br> |
− | दुनिया में | + | दुनिया में <br> |
− | सेना के साथ-साथ | + | सेना के साथ-साथ<br> |
− | लेकर यह मिथ्या अहंकार | + | लेकर यह मिथ्या अहंकार<br> |
− | ’करना है दोनों को सनाथ।’ | + | ’करना है दोनों को सनाथ।’<br> |
− | इस महापुरुष ने | + | इस महापुरुष ने <br> |
− | धर्म और | + | धर्म और<br> |
− | सेना का साथ नहीं माना, | + | सेना का साथ नहीं माना,<br> |
− | इसने | + | इसने<br> |
− | हित को फैलाने में | + | हित को फैलाने में<br> |
− | हिंसा का हाथ नहीं माना । | + | हिंसा का हाथ नहीं माना ।<br> |
− | भारत के लोग | + | भारत के लोग <br> |
− | गए बाहर | + | गए बाहर<br> |
− | लेकिन सेना लेकर न गए; | + | लेकिन सेना लेकर न गए;<br> |
− | वे जहाँ गये इसलिए | + | वे जहाँ गये इसलिए<br> |
− | प्रेम के पौधे | + | प्रेम के पौधे<br> |
− | पनपें नये-नये ! | + | पनपें नये-नये ! <br> |
− | वे शस्त्र नहीं | + | वे शस्त्र नहीं<br> |
− | ले बढ़े स्नेह | + | ले बढ़े स्नेह<br> |
− | सागर को लाँघा आर-पार | + | सागर को लाँघा आर-पार<br> |
− | ना; घुड़सवार या | + | ना; घुड़सवार या <br> |
− | रथी नहीं | + | रथी नहीं<br> |
− | पादातिक थे उनके विचार ! | + | पादातिक थे उनके विचार !<br> |
− | वे चले बचाकर चींटी को | + | वे चले बचाकर चींटी को <br> |
− | पशु-बल को सदा | + | पशु-बल को सदा <br> |
− | नगण्य गिना; | + | नगण्य गिना; <br> |
− | इसलिए | + | इसलिए<br> |
− | निपट अन्यों ने उनको | + | निपट अन्यों ने उनको<br> |
− | अपना और अनन्य गिना ! | + | अपना और अनन्य गिना !<br> |
− | तब भारतीय संस्कृति-धारा बनकर ललिता | + | तब भारतीय संस्कृति-धारा बनकर ललिता<br> |
− | हो गयी मेखलाकार, स्वर्ण-सागर, वलिता; | + | हो गयी मेखलाकार, स्वर्ण-सागर, वलिता;<br> |
− | जिस शिव-निमित्त-संस्कृति-धारा ने | + | जिस शिव-निमित्त-संस्कृति-धारा ने<br> |
− | तट धोये इन देशों के | + | तट धोये इन देशों के <br> |
− | जिसके कारण हो गए रूप | + | जिसके कारण हो गए रूप<br> |
− | जाज्वल्यमान परिवेशों के; | + | जाज्वल्यमान परिवेशों के;<br> |
− | उच्छल फेनिल होकर भी थी | + | उच्छल फेनिल होकर भी थी <br> |
− | जो धारा | + | जो धारा <br> |
− | गर्जन से विहीन, | + | गर्जन से विहीन,<br> |
− | जो पहुँची थी | + | जो पहुँची थी<br> |
− | अंजुलि में भर | + | अंजुलि में भर<br> |
− | वाणी निर्मल स्नेहिल अदीन, | + | वाणी निर्मल स्नेहिल अदीन,<br> |
− | वह धारा अब तक | + | वह धारा अब तक <br> |
− | बरस सहस्रों बीत गए | + | बरस सहस्रों बीत गए<br> |
− | आँखों के आगे आती है | + | आँखों के आगे आती है <br> |
− | धर रूप नए ! | + | धर रूप नए !<br> |
− | है कभी शंकराचार्य | + | है कभी शंकराचार्य<br> |
− | कभी नानक कबीर | + | कभी नानक कबीर<br> |
− | वह आती-जाती है हम तक | + | वह आती-जाती है हम तक<br> |
− | होकर अधीर ! | + | होकर अधीर !<br> |
− | वह कभी | + | वह कभी <br> |
− | विवेकानन्द | + | विवेकानन्द<br> |
− | कभी है रवि ठाकुर | + | कभी है रवि ठाकुर<br> |
− | फिर कभी गूंजने लगती है | + | फिर कभी गूंजने लगती है<br> |
− | बनकर | + | बनकर<br> |
− | गांधी का गौरव-स्वर ! | + | गांधी का गौरव-स्वर !<br> |
− | निःशब्द निभृत में बहती है | + | निःशब्द निभृत में बहती है <br> |
− | यह धारा | + | यह धारा <br> |
− | भरकर कल-कल स्वर | + | भरकर कल-कल स्वर<br> |
− | रूखे-सूखे | + | रूखे-सूखे<br> |
− | ऊँचे-नीचे | + | ऊँचे-नीचे<br> |
− | पृथ्वी के अंचल अपनाकर ! | + | पृथ्वी के अंचल अपनाकर !<br> |
09:41, 27 मार्च 2011 के समय का अवतरण
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यह कथा व्यक्ति की नहीं,
एक संस्कृति की है;
यह स्नेह शांति
सौंदर्य शौर्य की, धृति की है ।
यह धारा संस्कृति की
विशिष्ट अति वेगवान,
केवल भारत की धरती पर
थी प्रवहमान ।
इस महापुरुष ने
इसे प्रवहित किया वहाँ -
कल्पनातीत था
इसका
कल-कल नाद जहाँ ।
यह धारा
हुई प्रवाहित
ऐसे देशों में
ऐसे अगम्य
ऐसे अलंघ्य
परिवेशों में -
जिनके आड़े
ऊँचे गिरि-प्रान्तर
सागर थे,
जो स्वयं
सुसंस्कृत थे
प्राचीन उजागर थे !
जिनको अपनी भाषा
संस्कृति का
गौरव था;
जो गंधमान थे
जिनका
अपना सौरभ था !
ऐसे देशों में
अपनी धार बहा देना,
चाहे जितना
निश्छल हो
प्यार बहा देना-
श्रद्धा निष्ठा
व्याकुलता शक्ति
माँगता है;
अविरोध
और आशा उत्कट,
आत्यंतिक भक्ति
माँगता है !
इस महाप्राण ने
अपने में पहले विकास
इनका करके
फिर धीरे-धीरे
यह विशिष्टता
जन-जन के मन में भरके
कर दिया प्रवाहित
एक ओघ-सौंदर्य
विचारों का ऐसा-
निःस्वार्थ-भाव,
निष्ठापूर्वक,
था हुआ नहीं
अब तक ऐसा !
पहुँचे हैं धर्म-प्रचारक
दुनिया में
सेना के साथ-साथ
लेकर यह मिथ्या अहंकार
’करना है दोनों को सनाथ।’
इस महापुरुष ने
धर्म और
सेना का साथ नहीं माना,
इसने
हित को फैलाने में
हिंसा का हाथ नहीं माना ।
भारत के लोग
गए बाहर
लेकिन सेना लेकर न गए;
वे जहाँ गये इसलिए
प्रेम के पौधे
पनपें नये-नये !
वे शस्त्र नहीं
ले बढ़े स्नेह
सागर को लाँघा आर-पार
ना; घुड़सवार या
रथी नहीं
पादातिक थे उनके विचार !
वे चले बचाकर चींटी को
पशु-बल को सदा
नगण्य गिना;
इसलिए
निपट अन्यों ने उनको
अपना और अनन्य गिना !
तब भारतीय संस्कृति-धारा बनकर ललिता
हो गयी मेखलाकार, स्वर्ण-सागर, वलिता;
जिस शिव-निमित्त-संस्कृति-धारा ने
तट धोये इन देशों के
जिसके कारण हो गए रूप
जाज्वल्यमान परिवेशों के;
उच्छल फेनिल होकर भी थी
जो धारा
गर्जन से विहीन,
जो पहुँची थी
अंजुलि में भर
वाणी निर्मल स्नेहिल अदीन,
वह धारा अब तक
बरस सहस्रों बीत गए
आँखों के आगे आती है
धर रूप नए !
है कभी शंकराचार्य
कभी नानक कबीर
वह आती-जाती है हम तक
होकर अधीर !
वह कभी
विवेकानन्द
कभी है रवि ठाकुर
फिर कभी गूंजने लगती है
बनकर
गांधी का गौरव-स्वर !
निःशब्द निभृत में बहती है
यह धारा
भरकर कल-कल स्वर
रूखे-सूखे
ऊँचे-नीचे
पृथ्वी के अंचल अपनाकर !