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कालजयी / बीज सर्ग / भाग १ / भवानीप्रसाद मिश्र

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यह कथा व्यक्ति की नहीं, एक संस्कृति की है; यह स्नेह शांति सौंदर्य शौर्य की, धृति की है । यह धारा संस्कृति की विशिष्ट अति वेगवान, केवल भारत की धरती पर थी प्रवहमान ।

इस महापुरुष ने इसे प्रवहित किया वहाँ - कल्पनातीत था इसका कल-कल नाद जहाँ ।

यह धारा हुई प्रवाहित ऐसे देशों में ऐसे अगम्य ऐसे अलंघ्य परिवेशों में - जिनके आड़े ऊँचे गिरि-प्रान्तर सागर थे, जो स्वयं सुसंस्कृत थे प्राचीन उजागर थे !

जिनको अपनी भाषा संस्कृति का गौरव था; जो गंधमान थे जिनका अपना सौरभ था !

ऐसे देशों में अपनी धार बहा देना, चाहे जितना निश्छल हो प्यार बहा देना- श्रद्धा निष्ठा व्याकुलता शक्ति माँगता है; अविरोध और आशा उत्कट, आत्यंतिक भक्ति माँगता है !

इस महाप्राण ने अपने में पहले विकास इनका करके फिर धीरे-धीरे यह विशिष्टता जन-जन के मन में भरके कर दिया प्रवाहित एक ओघ-सौंदर्य विचारों का ऐसा- निःस्वार्थ-भाव, निष्ठापूर्वक, था हुआ नहीं अब तक ऐसा !

पहुँचे हैं धर्म-प्रचारक दुनिया में सेना के साथ-साथ लेकर यह मिथ्या अहंकार ’करना है दोनों को सनाथ।’

इस महापुरुष ने धर्म और सेना का साथ नहीं माना, इसने हित को फैलाने में हिंसा का हाथ नहीं माना ।

भारत के लोग गए बाहर लेकिन सेना लेकर न गए; वे जहाँ गये इसलिए प्रेम के पौधे पनपें नये-नये !

वे शस्त्र नहीं ले बढ़े स्नेह सागर को लाँघा आर-पार ना; घुड़सवार या रथी नहीं पादातिक थे उनके विचार !

वे चले बचाकर चींटी को पशु-बल को सदा नगण्य गिना; इसलिए निपट अन्यों ने उनको अपना और अनन्य गिना !

तब भारतीय संस्कृति-धारा बनकर ललिता हो गयी मेखलाकार, स्वर्ण-सागर, वलिता;

जिस शिव-निमित्त-संस्कृति-धारा ने तट धोये इन देशों के जिसके कारण हो गए रूप जाज्वल्यमान परिवेशों के;

उच्छल फेनिल होकर भी थी जो धारा गर्जन से विहीन, जो पहुँची थी अंजुलि में भर वाणी निर्मल स्नेहिल अदीन,

वह धारा अब तक बरस सहस्रों बीत गए आँखों के आगे आती है धर रूप नए !

है कभी शंकराचार्य कभी नानक कबीर वह आती-जाती है हम तक होकर अधीर !

वह कभी विवेकानन्द कभी है रवि ठाकुर फिर कभी गूंजने लगती है बनकर गांधी का गौरव-स्वर !

निःशब्द निभृत में बहती है यह धारा भरकर कल-कल स्वर रूखे-सूखे ऊँचे-नीचे पृथ्वी के अंचल अपनाकर !