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काळ दर काळ / रामस्वरूप परेश

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बरस बीतगा रेत में
न्हातां पाणी गे'र ॥
 
फूल खिले नी पांखाड़ी
लूवां रो रमझोळ ।
तुणको तक नी पांगरै
के प्राणां रो डोळ ॥
 
 
रळता, मिलता, बैठता,
करता मन री बात ।
चरभर बाजी खेलता
सै सुपना री बात ॥
 
 
घर में पाव न पीसणों
तिरस्या डांगर ढ़ोर ।
रूसी कुदरत कद मनै
माणख रो के जोर ॥
 
घणे कोड सूं बाछड़ो
पाळ्यो,बणगो बैल ।
पड्यो बेचणों भूख सूं
भाटो मन पर मेल ।।
 
पिणघट री रौनक गई
बापरगी सूनेड़।
जण-जण रै दुख सूं पडी
तालां मांय तरेड़ ॥
 
म्हैलां जगतो दीवलो
सारी सारी रात ।
पण फेरयूं भी रैंवती
आधी मन री बात ।।
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