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कुछ चुहल, कुछ हँसी हो गई / जहीर कुरैशी

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कुछ चुहल, कुछ हँसी हो गई
बात आई -गई हो गई


बूँद, जिस क्षण नदी में गिरी
वो उसी क्षण नदी हो गई

कीच में घुस रहे थे कमल
हाँ, तभी रोशनी हो गई

कर्म कुछ और कुछ है कथन
नीति यूँ दिगली हो गई

एक सूखे हुए पेड़ की
शाख कैसे हरी हो गई

रात भरपना तन बेचना
रोज़ की ज़िन्दगी हो गई

ढाई आखर की जाने कहाँ
तर्क से दुश्मनी हो गई.