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कृष्ण सुदामा चरित्र / शिवदीन राम जोशी / पृष्ठ 17

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यह नहीं तुम्हारे लायक है,
हम चावल खुश हो पते हैं |
यह रस है और अनोखा ही,
प्रभु चाख चाख गुण गाते हैं |
भर भर के मुट्ठी कृष्ण चन्द्र,
अति आनन्द से पा जाते थे |
उन्ही को व्यंजन पाक समझ,
हरि हरष हरष खा जाते थे |
इक दो मुट्ठी जब चबा लई,
तो हूँ न कृष्ण सन्तोष किया |
तीसरी मुट्ठी भरी हरि,
रुक्मणी ने कर से रोक लिया |
कहा जोर कर रुक्मणी ने,
क्या होना चाहते रंक प्रभु |
हमको भी तो देना चाहिए,
पते हैं आप निशंक प्रभु |
महाराज कृष्ण बोले वानी,
रस स्वाद मुझे आने न दिया |
पाने न दिया यह चावल तू ,
कर से कर तिने रोक लिया |
प्रेमी सखा के मिलते ही,
हुआ मुझे आनन्द अनन्य |
आकर के जैसे कृतार्थ किया,
दर्शन दीन्हे गुरु संदीपन |
ऐसे ही कर नित्य प्रेम,
नित नया प्रेम दिखलाते थे |
राहे विप्र खुश हाल वहाँ,
आनन्द से दिवस बिताते थे |