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खटकन / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'

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परसों तो-
अध-रते आकाश की छाती में खटकते नक्षत्र-सा-
गड़ रहा था वह डंक!
मेरे हृदय में!
कल सुबह उठने पर जान पड़ा-
कि वह सूर्यास्त के समय की ढीली
पश्चिम हिंगुल-लेखा सा था!
कल शाम तक रह गया वह शान्त नील झील पर-
पंछी की चोंच से खिंची सिल्कन रेख-सा!

इस वक्त मैं अब काफ़ी ठीक हूँ!
वाह रे समय-बैद-
तेरी मरहम!