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ख़ुशी मिली तो ये आलम था / 'ज़फ़र' इक़बाल

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ख़ुशी मिली तो ये आलम था बद-हवासी का
के ध्यान ही न रहा ग़म की बे-लिबासी का

चमक उठे हैं जो दिल के कलस यहाँ से अभी
गुज़र हुआ है ख़यालों की देव-दासी का

गुज़र न जा यूँही रुख़ फेर कर सलाम तो ले
हमें तो देर से दावा है रू-शनासी का

ख़ुदा को मान के तुझ लब के चूमने के सिवा
कोई इलाज नहीं आज की उदासी का

गिरे पड़े हुए पत्तों में शहर ढूँढता है
अजीब तौर है इस जंगलों के बासी का