भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"घिर गया है समय का रथ / शमशेर बहादुर सिंह" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
Pratishtha (चर्चा | योगदान) |
||
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
− | + | {{KKGlobal}} | |
− | + | {{KKRachna | |
− | + | |रचनाकार=शमशेर बहादुर सिंह | |
− | + | |संग्रह=कुछ और कविताएँ / शमशेर बहादुर सिंह | |
− | + | }} | |
मौन संध्या का दिए टीक | मौन संध्या का दिए टीक | ||
पंक्ति 23: | पंक्ति 23: | ||
अचल विंध्या पर | अचल विंध्या पर | ||
− | कुंडली खोली सिहरती | + | कुंडली खोली सिहरती चांदनी ने |
पंचमी की रात । | पंचमी की रात । |
18:16, 3 जुलाई 2008 के समय का अवतरण
मौन संध्या का दिए टीक
रात
काली
आ गई
सामने ऊपर, उठाए हाथ-सा
पथ बढ गया ।
घेरने को दुर्ग की दीवार मानों-
अचल विंध्या पर
कुंडली खोली सिहरती चांदनी ने
पंचमी की रात ।
घूमता उत्तर दिशा को सघन पथ
संकेत में कुछ कह गया ।
चमकते तारे लजाते हैं
प्रेरणा का दुर्ग ।
पार पश्चिम के, क्षितिज के पार
अमित गंगाएँ बहाकर भी
प्राण का नभ धूल-धूसित है ।
भेद उषा ने दिए सब खोल
हृदय के कुल भाव,
रात्रि के, अनमोल ।
दु:ख कढ़ता सजल, झलमल ।
आँख मलता पूर्व-स्रोत ।
पुन:
पुन: जगती जोत ।
घित गया है समय का रथ कहीं ।
लालिमा से मढ़ गया है राग ।
भावना की तुंग लहरें
पंथ अपना, अंत अपना जान
रोलती हैं मुक्ति के उदगार ।
(१९४६ में लिखित)