भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चार गो मुक्तक / कस्तूरी झा ‘कोकिल’

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:14, 29 फ़रवरी 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कस्तूरी झा 'कोकिल' |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

1.
दिवाली ओकरोॅ छै,
जेकरा जेबी रुपैइया।
बाँकी के रात भर
भोंकै छै सूईया।

2.
होली ऊ की खेलतै?
जेकरा रंग नैं पिचकारी।
देखी के ललचै छै,
बोलै छै मोॅन-मारी।

3.
देहॅ पर बसतर नैं
हाथोॅ में अबीर-झोली।
बें, की, केनाँ खेलतै?
तोंहीं बोलॅ होली।

4.
परब तेहवार आबै छै,
गरीबॅ कोॅ सताबै छै।
बनियाँ बैकालें
एक केॅ तीन भँजाबै छै।

-रचना-समय-समय पर, 2013