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"जग-जीवन में जो चिर महान / सुमित्रानंदन पंत" के अवतरणों में अंतर

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::जिसमें मानव-हित हो समान!
 
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मैं वह प्रकाश बन सकूँ, नाथ!
 
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मिज जावें जिसमें अखिल व्‍यक्ति!
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::दिशि-दिशि में प्रेम-प्रभा प्रसार,
 
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ला सकूँ विश्‍व में एक बार
 
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'''रचनाकाल: मई’१९३५
 
 
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रचनाकाल: मई १९३५

16:28, 9 जुलाई 2013 के समय का अवतरण

जग-जीवन में जो चिर महान,
सौंदर्य-पूर्ण औ सत्‍य-प्राण,
मैं उसका प्रेमी बनूँ, नाथ!
जिसमें मानव-हित हो समान!
जिससे जीवन में मिले शक्ति,
छूटे भय, संशय, अंध-भक्ति;
मैं वह प्रकाश बन सकूँ, नाथ!
मिट जावें जिसमें अखिल व्‍यक्ति!
दिशि-दिशि में प्रेम-प्रभा प्रसार,
हर भेद-भाव का अंधकार,
मैं खोल सकूँ चिर मुँदे, नाथ!
मानव के उर के स्‍वर्ग-द्वार!
पाकर, प्रभु! तुमसे अमर दान
करने मानव का परित्राण,
ला सकूँ विश्‍व में एक बार
फिर से नव जीवन का विहान!

रचनाकाल: मई १९३५