भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना / गोपालदास "नीरज"" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
|संग्रह=
 
|संग्रह=
 
}}
 
}}
 +
{{KKCatKavita}}
 +
{{KKPrasiddhRachna}}
 +
<poem>
 
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
 
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
 +
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए
  
अन्धेरा धरा पर कहीं रह न जाये |
+
नई ज्योति के धर नये पंख झिलमिल,
 
+
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन-स्वर्ग छू ले,
 
+
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
नयी ज्योति के धर नये पंख झिलमिल,
+
 
+
उडे मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले,
+
 
+
लगे रोशनी की झडी झूम ऐसी,
+
 
+
 
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
 
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
 
+
खुले मुक्ति का वह किरण-द्वार जगमग,
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,
+
उषा जा न पाए, निशा आ ना पाए।
 
+
उषा जा न पाये, निशा आ ना पाये |
+
 
+
  
 
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
 
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
 +
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए
  
अन्धेरा धरा पर कहीं रह न जाये |
+
सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,
 
+
 
+
स्रजन है अधूरा अगर विश्व भर में,
+
 
+
 
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
 
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
 
 
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
 
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
 
 
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
 
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
 +
चलेगा सदा नाश का खेल यों ही,
 +
भले ही दिवाली यहाँ रोज आए।
  
चलेगा सदा नाश का खेल यूं ही,
+
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
 +
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए
  
भले ही दिवाली यहां रोज आये |
+
मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ़ जग में,
 
+
नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
 
+
उतर क्यों न आएँ नखत सब नयन के,
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
+
नहीं कर सकेंगे हृदय में उजेरा,
 
+
कटेगे तभी यह अँधेरे घिरे अब
अन्धेरा धरा पर कहीं रह न जाये |
+
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए
 
+
 
+
मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में,
+
 
+
नहीं मिट सका है धरा का अंधेरा,
+
 
+
उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के,
+
 
+
नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा,
+
 
+
कटेंगे तभी यह अंधरे घिरे अब,
+
 
+
स्वय धर मनुज दीप का रूप आये |
+
 
+
 
+
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
+
  
अन्धेरा धरा पर कहीं रह न जाये |
+
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
 +
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए
 +
</poem>

17:17, 3 जुलाई 2013 के समय का अवतरण

जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए

नई ज्योति के धर नये पंख झिलमिल,
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन-स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण-द्वार जगमग,
उषा जा न पाए, निशा आ ना पाए।

जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए

सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यों ही,
भले ही दिवाली यहाँ रोज आए।

जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए

मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ़ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
उतर क्यों न आएँ नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे हृदय में उजेरा,
कटेगे तभी यह अँधेरे घिरे अब
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए

जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए