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जिन्दा जवाहरलाल / लक्ष्मीकान्त मुकुल

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वह कभी देश का प्रधानमंत्री नहीं रहा
जिसका लोग रेडियो, टी० वी० पर भाषण सुनते
किन्हीं ग्राम पंचायत का वह मुखिया भी नहीं
जो अपनी मूंछों पर हाथ फेरते निठल्ले लोगों पर रौब जमाता
वह फ़िल्मी हीरो भी नहीं
जिसके पीछे फैन्स की जमात होती, नामवर क्रिकेटर भी नहीं
दुनियां की नज़रों में गुलर का फूल बना
जीवित घूमता एक परछाई, जिससे कोई बात भी नहीं करता

बक्सर की भीड़ भरी सड़कों पर
धोती-कुर्ता-बंडी-टोपी पहने
साईकिल पर सवार अधेड़ है वह
उसे देखकर अचंभित नहीं होते बूढ़े, नौजवान
बच्चों ने कभी उसे नहीं माना ‘चाचा नेहरु’
स्कर्ट मिडी पहनी लड़कियां कभी सेल्फी नहीं लेतीं उसके साथ

कहता है मुनीम चौक का पानवाला
उसके किस्से-कैसे सशरीर जीवित होकर भी बन गया वह मृत प्राणी
किशोरावस्था में पनपी थी उसे सुदूर को देखने की उत्कंठा
घर से बिना बताये वह चला गया चित्रकूट
करता गया यात्रायें-दर-यात्रायें
समुद्र को निकट से देखने की तमन्ना
अनगिनित नदियाँ, असंख्य पहाड़, झील, हरे-भरे मैदान
उसे खींचते रहे दशकों तक.
थार मरूभूमि में
वह घूमता रहा भूखे पेट, लोभ-लाभ के लालचों से विलग

लम्बे सफ़र से लौटा जब वह अपने घर
अजनबी हो चुकी थी उसके लिए यह दुनिया
सम्बन्धी पुतला फूंककर कर चुके थे उसका श्राद्ध-कर्म
पत्नी छोड़ चुकी थी सुहाग की निशानियाँ
बच्चे पितृहीन होकर खो गए थे अपना बचपन
माता-पिता उसकी चिंता में छोड़ चुके थे जहान

सरकारी अभिलेखों, लोग-बाग़ की स्मृतियों में
वह अब हो चूका था मृत ब्यक्ति
खो चूका अपनी नागरिकता
मतदान, राशन पाने का अधिकार
घर के लोगों ने मानने से इंकार कर दिया
कि वह है उसके परिवार का एक जरूरी सदस्य
रिश्ते-नातों के सातों फाटकों पर जड़ दिए गए वज्र ताले

वह चिल्लाता रहा कि वही है वास्तविक व्यक्ति
कल्पित ‘लहवारे’ से लौटा कोई ईश्वरीय कृपा पात्र नहीं
वह गवाही देता रहा पृथ्वी, वायु, जल, अग्नि, आकाश से
मौन साधे रहे सब, दो मिनट के शोक की चुप्पी
लिखता रहा खड़िया से बड़े-बड़े अक्षरों में लिखावट
रेलवे स्टेशन, चौक, मुख्य सडकों की दीवालों पर
उजास भरी इबारत, अपनी उपस्थिति का पुख्ता सबूत
‘जिन्दा जवाहरलाल’, ‘जिन्दा जवाहरलाल’.